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________________ २७३ ६-तत्वार्थ २-रत्नत्रयाधिकार ७. मिथ्यादर्शन किसको कहते हैं ? तत्वों की या आत्मा के स्वरूप की विपरीत श्रद्धा या प्रतीति अथवा धारणा मिथ्यादर्शन है। विपरीत श्रद्धा से क्या तात्पर्य ? शरीर को ही अपना स्वरूप समझते हुए, इसी के जन्म मरण को अपना जन्म मरण अथवा इसी की साधक बाधक बाह्य साधन सामग्री को अपनी साधक वाधक मानना विपरीत श्रद्धा है। सम्यग्दर्शन किसको कहते हैं ? सातों तत्वों में अथवा आत्मा के स्वरूप में सच्ची श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहते हैं। सच्ची श्रद्धा से क्या समझे ? मैं चेतन स्वरूप अमूर्तीक व अविनाशी आत्मा हूं, शरीर नहीं। शरीर के जन्म मरण आदि से मेरा जन्म मरण नहीं होता। शरीर के सुख दुख या विघ्न बाधा से मुझे सुख दुख या विघ्न बाधा नहीं होती । शरीर की प्रत्येक अवस्था में मैं तो नित्य टंकोत्कीर्ण एक मात्र ज्ञायक भाव से स्थित रहता हूँ। ऐसी दृढ़ता को सच्ची श्रद्धा कहते हैं। ११. सम्यग्दर्शन कितने प्रकार का है ? दो प्रकार का निश्चय व व्यवहार । १२. व्यवहार सम्यग्दर्शन किसको कहते हैं ? सच्चे वीतरागी देव, तन्मुख विनिर्गत उपदेश व तन्मार्गानुगामी वीतरागी गुरु पर एकनिष्ठ श्रद्धा व भक्ति को अथवा पूर्वोक्त सात तत्वों पर दृढ़ आस्था को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं। १३. निश्चय सम्यग्दर्शन किसको कहते हैं ? शुद्धात्म की दृष्टि, अभिप्राय, रुचि, प्रतीति व श्रद्धा का होना निश्चय सम्यग्दर्शन है। १४. सम्यग्दर्शन के निश्चय व्यवहार भेदों का क्या प्रयोजन ? देव गुरु आदि के संसर्ग अथवा सात तत्वों में स्व पर का या
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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