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________________ ३ - कर्म सिद्धान्त १६६ ( १५६) जीव विपाकी कर्म किसे कहते हैं ? जिसका फल जीव में हो ( अर्थात जीव के ज्ञानादि गुणों को घाते या प्रभावित करे ) । (१६०) पुद्गल विपाकी कर्म किसे कहते हैं ? जिसका फल पुद्गल में हो (अर्थात जो शरीर का निर्माण करे ) । ( १६१) भव विपाको कर्म किसको कहते हैं ? जिसके फल से जीव संसार में रुके । (१६२) क्षेत्र विपाकी कर्म किसको कहते हैं ? १ - बन्धाधिकार जिसके फल से जीव का आकार विग्रह गति में पहले जैसा बना रहे । ( १६३) विग्रह गति किसको कहते हैं ? एक शरीर को छोड़ कर दूसरा शरीर ग्रहण करने के लिये जाने को विग्रहगति कहते हैं । (१६४) घातिया कर्म कितने व कौन से हैं ? सैतालीस - ज्ञानावरणी ५, दर्शनावरणी ६, मोहनीय २८, अन्तराय ५ । ( १६५) अघातिया कर्म कितने व कौन से हैं ? एक सौ एक वेदनीय २, आयु ४, नाम ६३, गोत्र २ । ( १६६) सर्वघाती प्रकृति कितनी व कौन सी हैं ? इक्कीस हैं - ज्ञानावरण की १ (केवलज्ञानावरण), दर्शनावरण की ६ (केवल दर्शनावरण १ और निद्रा ५ ), मोहनीय की १४ ( अनन्तानुबन्धी ४, अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४, मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व ) | ( १६७) देशघाती प्रकृति कितनी व कौन सी हैं ? छब्बीस हैं - ज्ञानावरण ४ (मति, श्रुत, अवधि व मन:पर्यय ज्ञानावरण), दर्शनावरण ३ ( चक्षु, अचक्षु व अवधि दर्शनावरण ), मोहनीय १४ ( संज्वलन ४, नोकषाय ६, सम्यक्प्रकृति) अन्तराय ५ ( दान, लोभ, भोग, उपभोग व वीर्यान्तराय) ।
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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