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________________ जनैसिद्धतिसंग्रह। दोहा। इक नव वसु इक वर्षकी, तीज़ शुकल वैशाख । करयो तत्वउपदेश यह, लखि बुधजनकी भाख ॥१॥ लघुघी तथा प्रमादतें, शब्द अर्थकी भूल । Kधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावो भवकूल ॥ F [१०] सामायिक पाठ झापा। . (पं० महाचंद्रजीकृत) . अथ प्रथम प्रतिक्रमण कर्म । काल अनंत अम्यो जगमें सहिये दुख भारी । जन्ममरण नित किये पापको है अधिकारी || कोटि भवांतरमाहिं मिलन दुर्लभ सामायिक | धन्य आज मैं भयो योग मिलियो सुखदायक ॥१॥ हे सर्वज्ञ जिनेश किये जे पाप जु म अव । ते सब मनवचकाय योगकी गुप्ति विना लभ ॥ आप समीप हजूरमाहि मैं खड़ो खड़ो. अब । दोष कहूं सो सुनो करो नठ दु:ख देहि जब ॥९॥ क्रोध मान मद लोभ मोह मायावश पानी । दुःखसहित जे किये दया तिनकी नहिं आनी ॥ विना प्रयोजन एकेंद्रिय चिंति चउ पंचेंद्रिय । आप प्रसादहि मिटै दोष 'जो लग्यो मोहि जिय |॥ ३ ॥ आपसमें इक और थापि करि जे दुख दीने । पेलि दिये पगतले दानकार प्राण हरीने ॥ आप जगतके जीवं जिते विन सबके नायकें । परं करौं मैं सुनो दोष मेटो दुखदायक | अंजन आदिक चार महां घनघोर पापमय । तिनके जे अपरोष भये है.
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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