SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६] मैनसिद्धांतसंग्रह । : परमाण नय निक्षेपको न उद्योत, अनुमवमें दिखे। ढग-ज्ञान-मुख-बल मय सदा नाह; आनं भाव जो मोविले ॥ मैं साध्य साधक मैं अबांधक, कर्म अरुं तसु फलंनित। चितपिंड चंड अखंड सुगुण करंड, च्युत पुनि कलंनित ॥१०॥ यो चिन्त्य निममें थिर भए तिन, अकथ नो आनन्द लयो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्रके नाही कहो। तवही शुकलध्यानानि करि चउ, घातं विधि कानन देखो। सब लख्यो केवलज्ञान करि भवि, लोककों शिवमग कंहो ।। पुनि धाति शेष अघात विधि, छिनमाहिं अष्टम भू वसे । वसु कर्म विनसै सुगुण वसु, सम्यक्त आदिक संब लसै ॥ संसार खार अपार पारा-वार तरि तीरहिं गये। अविकार अकल अरूप शुष, चिद्रूप अविनाशी भये ॥१२॥ निजमाहि लोक अलोक गुण, पर्याय प्रतिविम्बित थये। रहि हैं अनन्तानन्त काल य-या तथा शिव परणये ॥ पनि धन्य हैं जे जीव नरमव, पाय यह कारज किया। तिनहीं अनादि भ्रमण पंच, प्रकार ताज वर सुख लिया ॥१३ मुख्योपचार दुमेद यों बड, मागि रत्नत्रय धेरै। अरु धरेंगे ते शिव लहें सिन, सुयशनल-जगमल हरें। इमि जानि आलस हानि साहस, ठानि यह सिख आदरो। जबलों न रोग बरा गहै तब, लो झटिति निनहित करो॥१४॥ यह राग आग दहै सदा ता-ते. समामृत पनिये ॥ चिर भने विषय कषाय अब तो, त्याग निजपद लीजिये। कहा रच्यो पर पंदमें न तेरो, पर्दै यहै क्यों दुख सहै। . . अब दौल होऊ सुखी स्वपंद चिं, दीव मत चूको यह ॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy