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________________ ७४1 जैनसिद्धावसंग्रह। महावीराष्टकं स्तोत्रं, भक्त्या मागेन्दुना कृतम् । यः पठेच्छृणुयाचापि, स याति परमां गति ॥. दोहा-महावीर अष्टक रच्यो, भागचन्द रुचि ठान । पढ़ें सुनें ने भावसों, ते पावें निरवान || . प्रार्थना-भागचन्द पंडित महा, कियो अन्य गंमीर । में मतिमिते भाषा करी, शोषो सुधी सुधीर ॥१॥ श्रीयुत् पंडित दौलतरामजी कृत (१) छावाला। सारठा-तीन भुवनमें सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार. नमहुँ त्रियोग सम्हारिके ।। प्रथमढाल । चौपाई छन्द १५ मात्रा। जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त । मुख चाहें दुखतें भयवन्त | तातें दुखहारी सुखकार । कहैं सीख गुरु करुणाधार ॥१॥ ताहि सुना मवि मन थिर आन | जो चाहो अपनो कल्यान । मोह महा मद पियो अनादि । मूल आपको भरमत वादि ॥२॥ तास प्रमणकी है बहु कथा । पै कछु कहूं कही मुनि यथा ।। काल अनन्त निगोद मॅझार । बीतो एकेन्द्री:तन धार ॥२॥ एक श्वासमें अठदशवार । जन्मो मरो भरो दुख मार ॥ निकस भूमि जल पावक भयो। पवन प्रत्येक वनस्पति थयो दुर्लभ लहि ज्यों चिंतामणी । त्यों पर्याय लही त्रस तणी॥ १ मति माफिक । . . -
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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