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________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [.४९ संतति चिरकाल उपाई. बानी कहिय न नाई ॥१७॥ बाको जु उदय नंब आयो, नानाविध मोहि सगयो । फल मुंजत जो दुख पाउं, वचैत कैसें करि गाउं ॥१८॥ तुम जानत केवल ज्ञानी, दुख दूर करो शिवथानी ॥ हम तो तुम शरन लही है, जिन तारन विरद सही है ॥२१॥ जो गांवपति इक होवे, सो भी दुखिया दुख खोवै । तुम तीन भुवनके स्वामी, दुख मेटो अंतरजामी ॥१०॥ द्रौपदिको चीर बढ़ायो, सीताप्रति कमल रचायो॥ अंजनसे किये अकामी; दुख मेटो अंतरजामी ॥११॥ मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपनो विरद निहारो॥ सब दोष रहित करि स्वामी, दुख मेंटहु अंतरजामी २२॥ इंद्रादिक पद नाहिं चाहूं, विषयनिमैं नाहि लुभाउं ।। रागादिक दोष हरीने, परमातम निजपद दीने ॥३॥ दोहा-दोषरहित जिनदेवनी, निजपद दीजे मोय । सब जीवनकोसुख बढ़े, आनंद मंगल होय ॥२४॥ अनुभव माणिक पारखी, जौहरी आप जिनंद। ये ही वर मोहि दीजिये, चरन सरन आनंद ॥३१॥ इति आलोचना पाठ समाप्त ।। Rel
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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