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________________ 'जैनसिद्धांतसंग्रह। करना, ११ . व्युत्सर्ग :( शरीरसे ममत्व छोड़ना ), आर १९ ध्यान करना, ये बारह प्रकारके तप हैं ।। २१ ॥ दश. धर्म। ... . क्षमा मार्दव आर्जव, सत्यवचन चित पाग। संजम तप त्यागी सरव, आकिंचन तिय त्याग ॥ . अर्थ-१ उत्तमक्षमा, २ मार्दव, ६ आर्जव, ४ सत्य, १ शौच ६, संयम, ७ तप, त्याग,९ आकिंचन्य, १० ब्रह्मचर्य, ये दश प्रकारके धर्म हैं ॥२२॥ . . . आवश्यक। समता घर वंदन करें, नाना थुती बनाय । प्रतिक्रमण स्वाध्यायजुत कायोत्सर्ग लगाय ॥ अर्थ-१ समता ( समस्त जीवोंसे समताभाव रखना) २,.वंदना, ३ स्तुति (पंचपरमेष्ठीकी स्तुति) करना. ४ प्रतिक्रमण (लगे हुए दोषोंपर पश्चाताप) करना, ५ स्वाध्याय, और ६ कायोसंर्ग (ध्यान) करना ये छह आवश्यक है ॥२३॥ पंचाचार और तीन गुप्ति। दर्शन ज्ञान चारित्र तप, बीरन पंचाचार । गोपे मनवचकायको, गिन छतीस गुन सार ।। अर्थ-१ दर्शनाचार, २ ज्ञानाचार, ३ चारित्राचार, ४ तपाचार, ५ वी-चार, १ मनोगुप्ति (मनको वशमें करना) २ वचनगुप्ति (वचनको वशमें करना) ३ कायगुति (शरीरको वशमें करना) इस प्रकार सब मिलाकर आचार्यके ३६ मूलगुण हैं ॥१॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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