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________________ जनसिद्धतिसंग्रह 1 [ २२७ करिये सरल तिहुजोग अपने, देख निर्मल आरसी । मुख करे जैसा लखै तैसा, कपट प्रीति अँगारसी || । नहिं लहै लछमी अधिक छलकरि, करमबंधविसेखता । भय त्यागि दूध विलाव पीवै. आपदा नहिं देखता ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं उत्तमाभवधर्माङ्गाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहां ॥ चेरि हरिदै संतोष करहु तपस्या देहसौं । शौच सदा निर्दोष, धरम बड़ो संसारमें ॥ 8 ॥ उत्तम शांच सर्व जग जाना । लोभ पापको बाप मखाना ॥ आसपास महां दुखदानी । सुख पावै संतोषी प्राणी ॥ प्राणी सदा शुचि शीलजपतप ज्ञानध्यानप्रभावतें । नित गंगाजमुन· समुद्र न्हाये, अशुचिशेष स्वभावर्ते । ऊपर अमल मल भरचो भीतर, कौन विष घट शुचि कहै ॥ चहु देह मैली सुगुनथैली, शौचगुन साधू लहै ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं उत्तमशौचघर्मांगाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ कठिन वचन मति बोल, परनिंदा अरु झूठ तज । सांच जवाहर खोल, सतवादी नगमें सुखी ॥ १ ॥ उत्तम सत्य चरत पालीजे, परविश्वास घात नहिं कीने । सांचे झूठे मानुष देखो, आपनपून स्वपास न पेखो || 'देखो तिहायत पुरुष सांचेको, दरब सब दीजिये । सुनिराज श्रावककी प्रतिष्ठा, सांचगुण लख लीजिये ॥ ऊंचे सिंहासन बैठ सुनृप, धर्मका भूरति भया । . चच झूठसेती नरक पहुंचा, सुरगमें नारद गया ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं उत्तमसत्यम गाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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