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________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [२२३ ॐ ह्रीं दर्शनविशुब्यादिषोड़शकारणेम्यो निर्वपामि ॥७॥ : श्रीफल आदि बहुत फळसार । पूजौं जिन वांछितदातार । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दर्शन ॥८॥ ॐ ही दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेम्यो फलं ॥८॥ मक फल माठों दरन चढ़ाय | 'धानत' व्रत करों मनलाय,-परमगुरु हो, जय नय नाथ परमगुरु हो ॥ दर्शन ॥ ९ ॥ ही दर्शनविशुड्यादिषोड़शकारणेभ्यो मध्ये निर्वपामि || अथ जयमाला । दोहा-पोडशकारण गुण करै, हरै चतुरगतिवास । पापपुण्य सब नाशक, ज्ञानमानु परकास ॥१॥ दर्शनविशुद्ध घरै जो कोई। ताको भावागमन न होई॥ विनय महा धारे जो पानी । शिववनिताकी सखी वखनो ॥२॥ शील सदा दिढ़ नो नर पालें । सो औरनकी मापा टाः ॥ ज्ञानाभ्यास करै मनमाहीं । साकै मोहमहातम नाहीं ॥२॥ जो संवेगमाव विस्तारै । सुरगमुकतिपद माप निहारे । दान देय मन हरष विशेले । इह भर जस परमव सुख देख ॥३॥ जो तप तपै खपै ममिकाषा । चूरे करमशिखर गुरु भाषा ॥ साधुसमाधि सदा मम लावै । तिहुं नगमोगि भोग शिव नावै ॥६॥ 'निशदिन यावृत्य करैया। सौ निह भवनीर औरैया ॥ नो मरहंतमगति मन माने । सो जन विषय कषाय न जाने ॥६॥ जो माचारनमगति करे है । सो निर्मक माचार ,धरै है. बहुश्रुतवतमगति जो करई । सो नर संपुरन थापरई ॥२॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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