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________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। [२१९ दिक्चक्र गंधित होत जाकर, धूप दशअंगी कही। सो लाय मन वच काय शुद्ध, कगायकर खेऊ सही ॥ म० ॥ . ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिम्यो धूपं निर्वपामि ॥ ७॥ वर दाख खारक अमित प्यारे. मिष्ट चुष्ट चुनायके । ' द्रावड़ी दाडिम चारु पुंगी, थाल भर भरवायके ॥ म० ॥ ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिम्यो फर्क निर्वपामि ॥ ॥ नल गन्ध अक्षत पुष्प चरु वर, दीप धूप सु लावना । फल केलित भाठों द्रव्य मिश्रित, बघे कीजे पावना ॥ म. ॥ ॐहो श्रीमन्वादिसप्तषम्यो मध्य निर्वयामि ॥ ९ ॥ अथ जयमाला। बन्दू ऋषिराजा, धर्मनहाजा, निजपर काना, करत भले । करुणाके धारी, गगनविहारी, दुख अपहारी, भरम दले ॥ काटत. यमफन्दा, भविजन वृन्दा, करत अनंदा, चरणनमें । जो पून घ्यावे, मङ्गल गावें, फेर न भावे भववर्नमें । पद्धड़ी छन्द । जय श्रीमनु मुनिराजा महंत । त्रस थावरकी रक्षा करत ॥ भय मिथ्यातमनाशक पतङ्ग | करुणारसपूरित अङ्गमङ्ग ॥ १ ॥ जय श्रीस्वरमनु अकलवरूप । पद सेव करत नित अमर भूप ॥ जय पञ्च मक्ष जीते महान । तप तपत देह कञ्चन समान ॥२॥ जय निचय सप्त तत्वार्थभास । तप रमातनो तनमें प्रकाश । . जय विषयं रोष सम्बोष भान । परणतिके नाशन अचल ध्यान ॥ • नय जयहिं सर्वमुन्दर दयाका लखि इन्द्रनालवत जगतमाल || .
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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