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________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । [२०३. ... भाविक-सरोज-विकाश, निंद्यतमहरं-रविसे. हो। - जतिश्रावकआचार कथनको, तुम्ही बड़े हो॥ फूलसुबास अनेकसों हो), पूजों मदनप्रहार । सीमं ॥४॥ ॐ ही विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः कामबाणविध्वंसनायं पुष्पं ॥४॥ कामनाग विषधाम-नाशकों गरुड़ कडे हों। .. . छुधा महादवज्वाल, तासुको मेघ लहे हो। :::: नेवन बहुधृत मिष्टसों (हो), पूनों भूखविडार । सीम० ॥५॥ ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यः क्षुधारोगविनाशाय नैवेद्य ॥ उद्यम होन न देत, सर्व जगमाहिं भरयो है। मोह महातम घोर, नाश परकाश करयौ है ॥ पूनों,दीपप्रकाशसों हो। ज्ञानज्योतिकरतार । सीमं ॥६॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो मोहान्धकारविनाशाय दीपं । · कर्म आठ सब काठ,-भार विस्तार निहारा । ध्यान अगनिकर प्रगट, सर्व कीनों निरवारा ॥ धूप अनूपम खेवतें (हो, दुःख जलै निरधार । सीम० ॥ ७॥ . ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं मिथ्यावादी दुष्ट, लोभऽहंकार भरे हैं। सबको छिनमें नीत, जैनके मेरु खरे हैं । फल अति उत्तमसों जनों (हो, वांछित-फल दातार । सी• IKIE ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं । . . जल फल आठों दरब, अरघ. करमीत. धरी है। । ..गणधर इन्द्रनिहते, थुति पूरी न करी है....
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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