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________________ २७२] अनसिद्धांतसंग्रह। विन शील खता खाते हैं सब कांछके ढीले । इस शील विना तंत्र मंत्र जंत्र होकीले ॥ सब देव करें सेव इसी शीलके 'हीले । इस शील ही से चाहे तो निर्वाणपदी ले ॥ ११॥ सम्यत्त्व सहित शीलको पालें हैं जो अन्दर । सो शील धर्म होय. है कल्याणका मन्दिर ॥ इससे हुवे भवपार है कुल कोल और चन्दर । इस शीलकी महिमा न सके भाष पुरन्दर ॥ १३॥ जिस शीलके कहनेमें थका सहस बदन है । सि शीलसे भय पाय भगा कूर मदन है। सो शील ही भविवृन्दको कल्याण मंदन है। दश पैंड ही इस पेंडसे निर्वाण सदन है ॥ ११॥ (३६) बाईस पबिह। छप्पर-सुंधा तृषा हिम अने डसमसैंक दुख भारी । निरावरण तन मरैति वेद उपनावन नारी ॥ चरैया औसन शयेन दुष्ट वैयिक बध बन्धेन । याचे नहीं अलोम रोग तृण परस होय सन | मन मनित मैनि सनमान वश प्रज्ञा और अज्ञान' कर । दरशन मलीन पाईस सब साधु परीषह जान नर ॥१॥ . दोहा-सूत्र पाठ अनुसार ये कहे परीषह नाम । . इनके दुख जो मुनि सह तिनप्रति सदा प्रणाम ॥२॥ १ क्षुधा परीषह-अनसन ऊनोदर तप पोषत पक्षमास दिन बीत गये हैं। जो नहीं वेन योग्य भिक्षा विधि सूख अङ्ग सब शिथिल भये हैं। तब वहां दुस्सह भूखकी वेदन. सहत साधु नहीं नेक नये हैं। तिनके चरण कमलप्रति प्रति दिन हाथ जोड़ हम शीशं नये हैं ॥३॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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