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________________ AAW १६०] जैनसिद्धांतसंग्रह। छेदत शिरं भाला लिये, दिखा काय विकराल । पाप कियो भव पीछले, अब उदयागत काल । 'हीनाधिक तोलनेका फल । कम देना लेना अधिक, कपट रचा घर लोम । तीन पाप ते नरक ना, सहन कर .चित क्षोम ।। धकषकात आगी पच्यो, हाय हाय चिल्लाय । वाप ले मुदर कठिन, मारें दया बिहाय ॥ तीर्थ भण्डार और देव द्रव्य खानेका फल श्री जिन सेवा कारण तीर्थ धर्मके कान । पैसा रुपया द्रव्य गो, रक्षक नैन समाज ॥ रक्षक यदि मक्षक भये. तीन लोभ लहि- पाप.। नक नाय बहुकाल लों, भुगतै बहु ‘संताप ।। परस्त्री संगका फलनिज नारी अर्धाङ्गिनी, दुख सुखमें सहकार । तासों प्रेम निवारके, डोलत परतिय द्वार ।। भोग परस्त्री रक हो, घोर नर्कमें जाय। तप्त लोहकी पूतली, तिनते दुई .सटाय ।। वेश्या कर्मका फल- . वेश्या विषय बिकारसे कर व्यभिचार विहार । नरक मूमिमें उपलकें, पावत कष्ट अपार ॥ मायाचारी हो यहां, धन लटैः भरपूर । सो वेश्या पड़ नरकमें, सई दुःख अति क्रूर ॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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