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________________ १५८] जैनसिद्धांतसंग्रह। लोह मई कंटकनिकी, शय्याप पौदाय । मार खड़ग स्वहस्तले हाय ! हाय ! विनाय ॥ अधिकारके गर्वका फल-- दगा द्रोहकरि जिन यहां, रान सत्वको पाय । दण्डित कोने दीनने, नर्कन पहुंचे जाय ॥ अगनि माहि तिनको तहां, बैठावें दुखदाय । और कराती लेयके, चीरें मस्तक हाय॥ खोटी निंदाका फल । सम्बनकी चुगली करी. अर निन्दा अति घोर । नरक माहिं ठिस पापत. परसत भूमि कठार ।। मार पड़त वहां बहुत विषि देख थरहर आप । हाहा करि तहां कहत हैं, अब न करेंगे पाप ॥ चुगली आदि पापोंका फलजिन चुगली कीन्ही यहां, किये घनेरे पाप । नरक गते देखलो काटें विच्छू सांप ॥ विन देखी अरु विन मुनी, करें पराई यात । पापपिंड ने मरत है, ते चण्डाल कहात ॥ पापोपदेशका फलदे पदेश सुपापके आप करावे पाप। कि लापत स्वान हैं, देवें बहु संताप ॥ खii. दस्तावेज बनानेका फलपरके ठगने कारण, झूठी लेख लिखा। तीव्र लोमसे नक बा, अधिकहिं दुःत लहाहि ।
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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