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________________ १९८ जैन सिदान्त दीपिका वनस्पतिकाय १ वैमानिक १ दीन्द्रिय १ इस प्रकार २४ दण्डक होते हैं। दर्शनमोह-सत्य श्रद्धा की आस्था को विकृत करने वाला कर्म-सम्यग्दर्शन का घात करनेवाला कर्म । दिविरति-ऊंची, नीची और तिरछी दिशा में मर्यादा के उपरान्त जाने का व हिंसा आदि करने का त्याग करना । दीर्घकालिकीसंज्ञा-कालिक पर्यालोचन। देशावकाशिक-परिमित समय के लिए हिंसा आदि का त्याग करना। नमस्कारसहिता-सूर्योदय से ४८ मिनट तक कुछ भी न खानापीना। इसकी पूर्ति के समय पांच नमस्कार मन्त्र गुने जाते हैं, इसलिए इसका नाम नमस्कारसहिता है। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे नवकारसी कहते हैं। पर्याप्त अपर्याप्त-स्वयोग्य पर्याप्तियां (पोद्गतिक शक्तियां) पूर्ण कर ले, वह पर्याप्त; स्वयोग्य पर्याप्तियां जब तक पूर्ण न हो, वह अपर्याप्त । पल्योपम-संख्या से ऊपर का काल-असंन्यात काल, उपमाकाल-एक पार कोस का लम्बा-चौड़ा मोर गहरा कुमां है; उसमें नवजात योगलिक शिणु के केशों को जो मनुष्य के केश से ४.९६ हिस्से जितने सूक्ष्म है, असंख्य पण कर लूंस-ठूस करके भरा पाए, प्रति सौ वर्ष के अन्तर से एक-एक केश-पर निकालते-निकालते जितने काल में वह कुबा खाली हो, इतने काल को एक पल्य कहते हैं । पौषधोपवास-उपवास के साथ एक दिन-रात के लिए पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग करना।
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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