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________________ जैन सिद्धान्त दीपिका घात्यकर्म - आत्मा के गुणों की घात करने वाले, उन्हें विकृत करने वाले कर्म । चतुःस्पर्शी - जिनमें शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष ये चार स्पर्श होते हैं, वे स्कन्ध चतुःस्पर्शी होते हैं । छद्मस्थ - जिसका ज्ञान आवृत हो, वह छद्मस्य कहलाता है । जाति - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । जाति का अर्थ है - जीवों के देह और इन्द्रिय-रचना के आधार पर होनेवाले सदृशवर्ग । जीव के चौदह भेदसूक्ष्म एकेन्द्रिय बादर एकेन्द्रिय दीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय असंज्ञी पंचेन्द्रिय संजी पंचेन्द्रिय - अप्काय १ तेजस्काय १ वायुकाय १ १ अपर्याप्त ३ ५ ७ E " " " " " reo त्रीन्द्रिय १ चतुरिन्द्रिय १ २ पर्याप्त r C १० १२ १४ ११ १३ "" " जीवस्थान - आत्मा की क्रमिक विणुद्धि को जीवस्थान कहते हैं । दण्डक के चौबीस भेद : नरक १ भवनपति १० पृथ्वीकाय १० तियंञ्च-पंचेन्द्रिय १ मनुष्य पंचेन्द्रिय १ व्यन्तर १ ज्योतिष्क १ " " n " "
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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