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________________ १९४ जैन सिद्धान्त दीपिका अनाहारक अवस्था-आहार-शून्य अवस्था । अन्तराल-गति–एक जन्म से दूसरे जन्म में जाने के समय होने वाली गति और मुक्त आत्माबों की लोकान्त तक होने वाली एक समयवाली गति । अन्तर्मुहुर्त-दो समय से लेकर ४८ मिनट में एक समय कम हो वह काल। अप्रत्याख्यान-मोह-जिसके उदय से पूर्ण प्रत्याख्यान (त्यागसंबर) न हो सके, सर्वविरति को रोकने वाला कर्म । अरतिमोह-जिस कर्म के उदय से जीव संयम में मानन्द न माने, जिससे दुःख का अनुभव हो, वह अरतिमोह है। अवसर्पिणी-अवनतिकाल-सुख से दुःख की ओर जाने वाला काल । कालचक्र का पहला चक। इसका कालमान दस कोड़ाकोड़ सागर का होता है । इसके छह विभाग होते हैं : १. एकान्त सुखमय ४. दुःखसुखमय २. सुखमय ५. दुःखमय ३. सुखदुःखमय ६. एकान्त दुःखमय अविग्रहगति-ऋजुगति-सीधी गति । अविभागी-अस्तिकाय-धर्म, अधर्म, आकाश और जीव के प्रदेशसमूह को अस्तिकाय कहते हैं। इनके प्रदेश विभक्त नहीं होते-पृथक्पृषक नहीं होते । इसलिए ये द्रव्य अविभागी-अस्तिकाय कहलाते हैं । अविभाज्य-जिसके टुकड़े न हों। अविरति-अत्यागवृत्ति। असंख्य संख्या से ऊपर का, जिसके माप के लिए संख्या न हो । असिद्धत्व-संसार-अवस्था । आत्म-प्रदेश-आत्मा के अविभागी अवयव-बात्मा अखण्ड,
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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