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________________ जैन सिद्धान्त दीपिका १०३ जैसे कहा भी है- औदारिक, तंजस और कार्मण ये तीन शरीर संसार के मूल कारण हैं । मुक्त जीव उनको छोड़कर ऋजुश्रेणी से एक ही समय में लोकान्त तक चले जाते हैं । धर्मास्तिकाय की सहायता प्राप्त न होने के कारण उससे ऊपर नहीं जाने और वे हल्के होते हैं अतः फिर वापिस नीचे भी नहीं आते। योगरहित होने के कारण तिरछी गति भी नहीं करते । धूएं की तरह हल्के और तूंबे की तरह निर्लेप तथा मुच्यमान एरण्ड फली की तरह बन्धनमुक्त होने के कारण उनकी ऊर्ध्वगति होती है । वहां वे सादि, अनन्त, अनुपम एवं बाधारहित स्वाभाविक सुख को पाकर केवलज्ञान - केवलदर्शन से सहज आनन्द का अनुभव करते हैं । २४. मुक्तात्माओं के निवास स्थान को ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी कहते हैं । वह पृथ्वी समयक्षेत्र के बराबर लम्बी-चौड़ी है। उसके मध्यभाग की मोटाई आठ योजन की है और उसका अन्तिम भाग मक्खी के पर से भी अधिक पतला है । वह लोक के अग्रभाग में स्थित है । उसका आकार सीधे छत्ते जैसा है तथा वह श्वेत स्वर्णमयी है । मुक्ति, सिद्धालय – ये उसके नाम हैं । - २५. दो तत्त्वों में नव तत्त्वों का समावेश हो जाता है वस्तुवृत्या जीव और अजीव ये दो ही तत्त्व हैं। पुण्य आदि इन्हीं की अवस्था विशेष हैं, जैसे—जीव, आश्रय, संवर, निर्जरा
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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