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________________ जन सिद्धान्त दीपिका उसकी तरह अडोल अवस्था) में-चौदहवें जीवस्थान में होता ___मंयमी साधुओं के ध्यान आदि के द्वारा जो शुभयोग का निरोध होता है, वह भी अयोग संवर का ही अंश है । अप्रमाद, अकषाय और अयोग संवर तीनों प्रत्याख्यान किए बिना आन्तरिक आत्म-उज्ज्वलता से ही होते है । १६. नपस्या के द्वारा कर्ममल का विच्छेद होने से जो आत्मउज्ज्वलना होती है, उमे निर्जग कहते है। १७. उपचार से तपस्या को भी निर्जरा कहते है। कारण को कार्य मानकर तपस्या को भी निजंग कहते है.--अतएव वह (निर्जरा) बारह प्रकार की होती है : मकाम और अकाम के भेद से वह दो प्रकार की होती है : मोक्ष-प्राप्ति के उद्देश्य मे की जानेवाली निजंग मकाम और इसके अतिरिक्त निर्जरा अकाम होती है। यह दोनों प्रकार की निर्जरा मम्यक्त्री एवं मिथ्यात्वी दोनों के ही होती है। १८. ममस्त कर्मों का फिर वन्ध न हो, ऐसा क्षय होन में आत्मा अपने ज्ञान-दर्शनमय स्वरूप में अवस्थित होती है, उसका नाम मोक्ष है। अनादिकाल में मम्बन्धिन आत्मा और कर्म पृथक् कम हो मकत है; मा मन्देह नहीं करना चाहिए । अनादिमम्बद्ध धातु एवं मिट्टी, अग्नि आदि उचित माधनों के द्वारा पृथक होत हुए देखे जाते है, तब वैसा क्यों नहीं हो सकता?
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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