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________________ 'अवतारवादी' विचारधारा का समर्थक है। महापुरुषो के सम्बन्ध में जैनो व हिन्दुओ मे यही मौलिक मतभेद है । राम व श्रीकृष्ण के विषय मे भी इसी धारणा के कारण मतभेद हुए है, कथाओ मे अन्तर आया है। मेरे विचार मे आज इस बात का महत्व उतना नही रहा, कि कोई राम या श्रीकृष्ण को जन्म से ही भगवान माने या कृतित्व से भगवान माने, आज तो आवश्यकता है कि उनका उदात्त चरित्र हमे क्या, कितनी और कैसी प्रेरणा देता है। हम उनके आदर्शो से अपना जीवन-विकास कितना साधते है और हम कितना उनकी शिक्षाओ का पालन करते है । अस्तु । प्रस्तुत जैन श्रीकृष्ण-कथा के आलेखन मे मूलत मेरा दृष्टिकोण समन्वय-प्रधान रहा है। श्वेताम्बर परम्परामान्य त्रिपष्टिशलाका पुरुषचरित के आधार पर श्रीकृष्ण-कथा लिखी गई है । आगम व वसुदेवहिडी आदि ग्रथो से भी कथासूत्र जोडा है। दिगम्बर जैन परम्परा के प्रमाणभूत ग्रन्थो मे कही-कही घटना मे, कही घटना के कारणो मे व कही व्यक्तियो के नामो मे अन्तर है, पर कोई मौलिक अन्तर नही है। जवकि वैदिक परम्परा के ग्रथोश्रीमद्भागवत, महाभारत आदि मे काफी अन्तर है । हजारो वर्ष की साहित्य धारा मे इतना अन्तर हो जाना कोई आश्चर्यजनक बात भी नही है। क्योकि विचारक्षेत्र मे सदा से ही 'मुण्डे-मुण्डे मतिभिन्ना' का सिद्धान्त चलता आया है। फिर भी मेरा प्रयत्न यह रहा है कि मतभेद को वढावा न देकर उसकी दूरी को पाटना व मतभेदजन्य कटुता को मिटाना-ताकि सभी धार्मिक व विचारक एक दूसरे को समझे, निकट आये और जीवन मे सहिष्णु वने । धर्म-सहिष्णुता बहुत बडी चीज है, वह तभी आयेगी जव हम समभाव के साथ एक दूसरे को पढ़ेंगे-सुनेगे । इसी कारण जैन श्रीकृष्ण-कथा के लेखन मे, फुटनोट के रूप मे भागवत, महाभारत आदि के कथान्तरो का उल्लेख भी किया गया है । कुल मिलाकर वासुदेव श्रीकृष्ण के 'लोकमगलकारी' अखण्ड स्वरूप को बनाये रखने की चेष्टा मैंने की है।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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