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________________ श्रीकृष्ण - कथा - वसुदेव का पूर्वभव - मैं आपको क्या दूँ ? - देव ने विनीत स्वर मे पूछा । नदिषेण ने उत्तर दिया 1 देव | सर्वत्यागी जैन श्रमण सदैव ही इच्छा त्यागी होते है । उन्हें किमी भी ससारी वस्तु की आकाक्षा नही होती । मुझे कुछ नही चाहिए । देव ने गद्गद् होकर पुन नमन किया । भक्तिपूर्ण हृदय लेकर वह अपने स्थान को चला गया और मुनि नदिषेण उपाश्रय लौट आये । उपाश्रय में अन्य मुनियो ने पूछा -भद्र । वे रोगी मुनि कहाँ है ? तव नदिपेण ने मव कुछ महज स्वर मे बता दिया । सभी मुनि सतुष्ट हुए । इसके पश्चात् नदिषेण ने बारह हजार वर्ष तक घोर तप किया । अनेक प्रकार के अभिग्रह ओर अनशन करते हुए वे तपञ्चरण मे लीन रहते । एक बार वे अनगनपूर्वक तप में लीन थे कि अचानक उन्हे अपने दुर्भाग्य और तिरस्कार की स्मृति हो आई । मामा की पुत्रियो के वचन ओर घृणा प्रदर्शित करती हुई मुख-मुद्रा उनके मानस पटल पर दौड गई । उसके बाद दृश्य उभरा उद्यान मे क्रीडा करते पतिपत्नी का । मुनि का व्यान भग हो गया । कषाय के तीव्र आवेग मे उन्होने निदान किया- 'इस तप के प्रभाव से अगले जन्म मे मै स्त्रियो का अति प्रिय वनं ।' काल धर्म प्राप्त करके मुनि नदिषेण महाशुक्र देवलोक मे देव हुए । मुनि सुप्रतिष्ठ ने राजा अथकवृष्णि को सबोधित करके कहा- राजन् । मुनि नदिषेण का जीव ही महाशुक्र देवलोक मे व्यवकर
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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