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________________ जैन कथामाला भाग १ मुनि ने कहा --अरे मूर्ख | इतनी तेजी से चल कर मुझे क्यो दुखी कर रहा है ? देखता नही अगो के हिलने से मुझे कष्ट होता है। वीरे-धीरे चले नदिषेण तो उन्हे पुन सुनाई पडा -इतनी धीमी चाल से कब तक उपाश्रय पहुंचोगे ? तुम्हारे कन्धे की हड्डियाँ छिद कर मुझे पीडित कर रही है । ____ 'किस प्रकार चलूँ कि इन मुनि को कष्ट न हो' यह सोच ही रहे थे नन्दिषेण कि मुनि ने विष्टा कर दी। नन्दिषेण का शरीर ऊपर से नीचे तक विष्टा से सन गया। घोर दुर्गन्ध फैल गई। नदिषेण मार्ग मे ही रुक कर विष्टा साफ करने का विचार करने लगे और इसी हेतु तनिक ठहरे तो मुनि ने कहा -चलता क्यो नही ? क्या मुझे मार्ग मे ही गिरा कर भाग जाने का विचार है ? ___मुनि नदिपेण चलने लगे। उनके हृदय मे बार-बार यही विचार आता कि 'अहो । इन मुनि को बडा कष्ट है। कैसे भी इनका कष्ट दूर हो। रोग की शाति हो जाय । मेरे कारण भी इन्हे पीडा हो रही है।' इन विचारो के आते ही नदिषेण सँभल-सॅभल कर कदम रखते । कही मुनि का कोई अग. हिल न जाय जिससे इन्हे तनिक भी पीडा हो। उनकी ऐसी अविचल साधु-मेवा देखकर देव दग रह गया। उसे विश्वास हो गया देवराज इन्द्र के शब्द अक्षरश सत्य है । मुनि नदिषेण की प्रतिज्ञा खरी है। उसने अपना दिव्य रूप प्रगट किया और तीन प्रदक्षिणा करके वोला___ मुनिवर | जब आपकी प्रतिज्ञा की प्रशसा इन्द्र ने की तो मुझे विश्वास नही हुआ था । इसीलिए मैने आपकी परीक्षा ली। धन्य है आपका धैर्य और अग्लान साधु सेवा । मेरा अपराध क्षमा करिए। ___-तुम्हारा कोई अपराध नही है, देव -नदिषेण ने महज स्वर मे कहा।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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