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________________ २८ जैन कथामाला भाग ३३ } को भुजाओ से तैर कर पार कर लिया । जान पडता है, तुमने जानदूझकर राजा पद्मनाभ को परास्त नही किया । - हमने तो गंगा महानदी नौका मे बैठकर पार की । - पाडवो ने ने बतलाया | - फिर वह वापिस क्यो नही छोडी ? - आपके वल की परीक्षा करना चाहते थे, इसलिए । – कहते-कहते पाडवो के मुख पर मुस्कान खेल गई । - श्रीकृष्ण ने इस मुस्कान को व्यग समझा और वे भडक कर वोले- मेरे वल की परीक्षा ! जब मैंने दो लाख योजन लवण समुद्र को पार किया, पद्मनाभ को मर्दित किया, अमरकका नगरी को पाद- प्रहार से ध्वस्त कर दिया और द्रौपदी को लाकर तुम्हे सौप दिया - तब भी तुम्हे मेरा बल नही दिखा । अब देखो मेरा वल !! यह कहकर वासुदेव ने लोह दण्ड से उनके रथो को चूर-चूर कर दिया। उसी समय उनके निर्वासन की आज्ञा देते हुए बोले - यह है मेरा माहात्म्य ! वासुदेव की वक्र -भगिमा को देखकर पाडव सहम गए। उनके से एक शब्द भी न निकल सका। वे क्षमायाचना भी न कर ६ मुख पाए । उस स्थान पर रथमर्दन नाम का नगर बस गया । श्रीकृष्ण वहाँ से चले गए और अपनी सेना के साथ द्वारका जा पहुँचे । पाडव भी निरागमुख हस्तिनापुर पहुँचे । उन्होंने मुरझाए चेहरो से अपने निर्वामन की आज्ञा माता कुन्ती को बतला दी । - तुमने वासुदेव श्रीकृष्ण का अप्रिय करके बहुत बुरा किया | यह कह कर कुन्ती ने पुत्रो की भर्त्सना थी । पाडवो ने दुखी स्वर मे - क्षमायाचना सी करते हुए माता से कहा माँ ' हम से भूल तो हो ही गई । अब तुम्हीं द्वारका नगरी जाओ और वासुदेव मे पूछो कि हम लोग कहाँ रहे -
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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