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________________ २५६ जैन कथामाला भाग ३३ प्रज्ञप्ति विद्या से कहा - 'ऐसा करो कि सत्यभामा को तो मैं कन्या ही दिखाई पड और बाकी सब लोगो को अपने असली रूप मे शाव ही ।' विद्या ने शाव की इच्छा पूरी कर दी । ܘ सत्यभामा राज- कन्या का हाथ पकड कर द्वारका मे ले आई । उस समय नगरवासियो को वडा आश्चर्य हुआ कि भामा शाव का हाथ पकडे लिए जा रही है । कहाँ तो इसे फूटी आँख भी नही देखना चाहती थी । किन्तु कहा किसी ने कुछ भी नही । कौन राजा-रानियो के बीच मे वोले और अपने सिर व्यर्थ की विपत्ति मोल ले । लग्न मण्डप मे भी शाव ने कपट से काम लिया । भीरुक के हाथ का इतनी जोर से दबाया कि वह व्यथित हो गया । उसने अपना हाथ अलग कर लिया । लोगो को दिखाने के लिए केवल नीचे लगाये रहा । वाकी ६ कन्याओ के हाथ भी शाव के करतल के नीचे रख दिये गये । वलशाली गाव के साथ विवाह होते देखकर सभी कन्याएँ सतुष्ट हो गई । वास गृह मे कन्याओ के साथ शाव गया तो पीछे-पीछे भीरुक भी जा पहुँचा | गाव ने उसे फटकार कर भगा दिया । भीरुक ने अपनी `माता सत्यभामा से जाकर कहा तो उसे पुत्र की बात पर विश्वास ही नही हुआ । स्वय आई । शाव को देखकर वोली - निर्लज्ज ! तू फिर यहाँ आ गया ? ― - हाँ माता । आपकी कृपा से । - कौन लाया तुझे ? - आप स्वय ही तो मुझे लाई और इन ६६ कन्याओ से विवाह कराया । - झूठ, विल्कुल झूठ - सत्यभामा को शाव की ढिठाई पर क्रोध आ गया । - बिलकुल मत्य । मेरा विश्वास न करो तो इन कन्याओ से, नगरवासियो से और अपनी ही दासियो से पूछ लो ।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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