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________________ जैन कयामाला भाग ३२ -यह क्या ? उग्रसेन के आश्चर्य कोशात करते हुए वसुदेव ने अपने अक मे छिपे वालक को दिखा कर कहा -यह कस का शत्रु है ? किन्तु आप किसी से कहिए मत। वन्दी राजा उग्रसेन को सतोप हुआ। उन्होने मिर हिलाकर वसुदेव की बात स्वीकार की। तव तक साथ रहने वाले दवो ने नगर-द्वार खोल दिया। उसमे इतना स्थान हो गया कि वसुदेव सरलता से निकल सके । वसुदेव नगर से बाहर निकल गए। वसुदेव नन्द के घर पहुंचे और उसे सब कुछ नमझा कर अपना पुत्र सौप दिया। इस पुत्र को लेकर नन्द ने अपनी नवजात पुत्री अपनी पत्नी यशोदा के अंक मे मे उठाई और उनके स्थान पर रम पुत्र को सुला दिया। पुत्री लाकर वसुदेव को दे दी। वसुदेव के मुख से निकल पडा-- –नन्द । तुम्हारा यह उपकार क्या भूलने योग्य है ? -स्वामी-पुत्र के प्राण बचाना मेरा कर्तव्य है। इसमे उपकार कैसा? नन्द ने उत्तर दिया।' पुत्री को अक मे छिपाए वसुदेव अपने स्थान पर लौट आए। उन्होने वह कन्या देवकी को दी और स्वय उसके कक्ष मे बाहर निकल आएं। __ ज्यो ही वसुदेव बाहर निकले पहरेदारो की नीद टूट गई। 'क्या उत्पन्न हुआ' यह पूछते हुए अन्दर आए। देखा तो एक नवजात कन्या देवकी के पार्श्व मे लेटी हुई थी। पहरेदारो ने उसे उठाया और कस को ले जाकर दे दिया। कस ने देखा कि सातवॉ गर्भ कन्या के रूप मे उत्पन्न हुआ है तो उसने मन मे समझा कि मुनि की वाणी मिथ्या हो गई । 'यह बेचारी कन्या मेरा क्या विगाड लेगी। इमे क्या मारना?' ऐसा विचार कर
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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