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________________ श्रीकृष्ण-कथा-वासुदेव श्रीकृष्ण का जन्म १३३ -मै वचनवद्ध हूँ देवि । दुख तो मुझे भी बहुत है, पर क्या करूँ ? ---वसुदेव.ने निराश स्वर मे उत्तर दिया. .. 'नारी की सहज वुद्धि जाग उठी। बोली -स्वामी । साधु के साथ साधु और मायावी के साथ मायावी वनना—यही धर्म नीति है। जव आपके पुत्रो को मारने के लिए कस छल कर सकता है तो आप पुत्र वचाने के लिए क्यो नही कर सकते ? वसुदेव देवकी की वात पर गम्भीरतापूर्वक सोचने लगे। उन्हे विचार-मग्न देखकर देवकी की वेकली बढी-। वह कहने लगी- प्राणधन | यह समय--सोच-विचार का -नही है। आप एक प्राणी की रक्षा के लिए कपट कर रहे है जो न अधर्म है और न अनीति । जल्दी कीजिए स्वामी ! इस समय पहरेदार-सोए हुए है। आप-पुत्र को लेकर निकल जाइये।-- - - - - ... ... ... . ... वसुदेव देवकी की बात से सहमत हो गए, बोले- .: तुम्हारा कथन यथार्थ है, किन्तु इस अर्द्धरात्रि मे वालक को लेकर कहाँ जाऊँ ? -समीप ही आपको मेरे पिता की ओर से मिले दस गोकुल है । उनका स्वामी नद आपका सेवक है। उसी के पास-मेरे पुत्र को छोड़ आइये।-- - . ----- -- ------ यह भी देवकी को ही बताना पड़ा।... ............. ....... ... नवजात शिशु को अक मे लेकर वसुदेव निकले। वाहर मूसलाधार पानी पड़ रहा था। समीपस्थ देवो ने उनके ऊपर छत्र सा तान दिया, पुष्पवृष्टि की और आठ दीपको से मार्ग आलोकित कर दिया। - वसुदेव विना किसी कठिनाई के नगर द्वार के समीप पहुँच गए। घोर अधियारी रात्रि मे दीपकों के प्रकाश से आलोकित पथ पर एक पुरुष को चलते देखकर पिंजरे में बन्दी उग्रसेन आश्चर्य चकित रह गए। उनके मुख से सहसा निकल पडा--- ----------- १ उग्रसेन कस के पिता थे जिनको उसने पिंजरे मे बन्दी बनाकर नगर द्वार ...' के पास रख छोड़ा था। ......
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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