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________________ श्रीकृष्ण-कथा-लौट के वसुदेव घर को आये १०७ हम क्षत्रियो के बीच से एक ढोल वादक राजकन्या रोहिणी को ले गया और हम लोग देखते ही रह गए। --राजाओ ने भ्रकुटी टेढी करके उत्तर दिया। __ न्यायवेत्ता विदुर ने कुपित राजाआ को शान्त करने की इच्छा से कहा___-राजाओ | आप लोगो का कथन उचित है। किन्तु इस पुरुप का कुल-शील तो जान ही लेना चाहिए । -अपना कुल-शील बताने के लिए मेरी भी भुजाएँ फडक रही हैं। कोई आगे तो वढे मेरी पत्नी रोहिणी की तरफ-चीर कर दो कर दूंगा।-वादक के वेश मे छिपे हुए वसुदेव बोल उठे। वसुदेव के इन शब्दो से आग मे घी पड गया। विदुर की शान्ति स्थापित करने की चेष्टा धरी की धरी रह गई । क्षत्रियो को ऐसे शब्द कहाँ सहन हो सकते थे और वह भी एक ढोलची के मुख से । भरतार्द्ध के स्वामी प्रतिवासुदेव का चेहरा क्रोध से तमतमा गया । उसके कुपित मुख से विषवाण निक ने -राजाओ | पहले तो रुधिर राजा ने हमारा अपमान कराया और दूसरे वरमाला कठ मे पड़ने से यह ढोलची भी ढोल के समान ही बजने लगा है। इसे राजकन्या प्राप्त होने से सतोष नही हुआ वरन् घमड वढ गया। इसका दिमाग सातवे आसमान पर चढ़ गया है। राजा रुधिर का रुधिर वहा दो और इस वादक के गले मे पडी वरमाला को फॉसी का फदा बना दो। जरासघ के शब्दो ने चावुक का सा काम किया । सभी राजा शस्त्र निकाल कर वादक पर झपटने को तत्पर हुए। वादक ने मुस्करा कर कहा-ऐसे नही। -तो कैसे ? राजा उसकी व्यगपूर्ण मुस्कान से चकित थे। -तुम सबसे अकेले युद्ध करने में मजा नहीं आएगा । सभी अपनी सेना और ले आओ तो कुछ देर तो युद्ध चले। -वसुदेव के शब्दो मे तीखा व्यग था।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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