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________________ श्रीकृष्ण - कथा - वसुदेव- कनकवती विवाह से बोले -भद्र | वह अर्जुन जाति के स्वर्ण' से निर्मित मेरी मुद्रिका उतार दो । १०३ वसुदेव ने मुद्रिका उतारी तो चमत्कार सा हुआ । उनका अपना स्वरूप प्रगट हो गया । प्रसन्न होकर कनकवती ने वरमाला उनके कठ मे डाल दी । उसी समय कुवेर की आज्ञा से आकाश मे देव-दु दुभी वजने लगी । अप्सराएँ - नृत्य और गायन करने लगी । आकाश वाणी हुई— - अहो | इस राजा हरिश्चन्द्र की पुत्री कनकवती धन्य है कि इसने लोक-प्रधान पुरुप का वरण किया । कुबेर की आज्ञा से देवियो ने वसुधारा बरसाई । वसुदेव और कनकवती के विवाह की तैयारियाँ होने लगी । स्वयवर मे उपस्थित सभी राजा रोक लिए गये। सभी विवाह कार्य मे उत्साहपूर्वक भाग लेने लगे । जहाँ धनद कुवेर स्वयं उपस्थित हो वहाँ किस वस्तु की कमी हो सकती है ? धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ । स्वयंवर मे उपस्थित सभी राजा विदा हो गये किन्तु राजा हरिश्चन्द्र ने आग्रहपूर्वक कुवेर रोक लिया । वे भी कनकवी के प्रति मोह होने के कारण रुक गये । मोह् का ववन' अदृश्य होते हुए भी सर्वाधिक शक्तिशाली होता है । - त्रिषष्टि ८ / ३ १ अर्जुन जाति का स्वर्ण ममवत किमी अन्य स्थान पर प्राप्त होने वाला विशेष प्रकार का स्वर्ण है 1 २ कनकवती और कुवेर के पिछले जन्मो के मवध तथा मोह के बन्धन का पूरा वृतान्त नल-दमयन्ती उपाख्यान मे है ।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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