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जैन कथामाला भाग ३१
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उसी समय रूप और गुण की खानि राजकुमारी कनकवती ने हाथ से वरमाला लेकर मद-मद कदमो से मडप मे प्रवेश किया। सभी राजा सावधान हो गये । कनकवती एक-एक करके राजाओ को देखती जा रही थी । जिसके सामने वह आती वह फूल जाता और जब वह आगे वढ जाती तो पिचक जाता मानो गुव्वारे की हवा निकाल दी कनकवती सपूर्ण स्वयवर मंडप मे घून गई किन्तु उसे मन का मीत न दिखाई दिया | सायकाल की कमलिनी के समान उसका मुख म्लान हो गया । वह खडी रह गई 1
जब किसी राजा के गले में वरमाला नही पडी तो वे सोचने लगे-'क्या हमारे रूप, वेग, चेष्टा आदि मे कोई कमी है ?"
राजकुमारी को किकर्तव्यविमूढ देखकर पास खडी सखी ने कान मे किसी भी पुरुष के गले मे माला
- देर क्यो कर रही हो
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कहा
गई
हो ।
डाल दो |
कैसे डाल दूं किसी के भी कठ मे माला ? जिसको हृदय मे बसाया वह तो दिखाई देता ही नही ।
- एक बार पुन ध्यान से देखो । – सखी ने उत्साहित किया । कनकवती की दृष्टि एक-एक राजा पर घूमने लगी । जव कुवेर पर दृष्टि पडी तो देखा कि वे मुस्करा रहे हैं । इससे भी अधिक आश्चर्य उसे तब हुआ जब उसे दो कुवेर दिखाई पडे । उसकी अन्तरात्मा से आवाज उठी- 'यह कुबेर की ही लीला है । इन्ही ने वसुदेव का रूप परिवर्तित कर दिया है ।' तुरन्त कुवेर को जाकर प्रणाम किया और कातर स्वर मे वोली
- हे देव ! मुझसे ऐसा मजाक मत करो । मेरे पति को प्रकट कर दो ।
अपनी इसी भव की पत्नी की कातरता देख कर कुबेर वसुदेव
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कनकवती अपने इस जन्म से पहले उसी कुबेर की पत्नी थी । वह स्वर्ग मे च्युत होकर कनकवती के रूप मे उत्पन्न हुई थी । इसी कारण वह कुबेर के लिए उसके इसी जन्म की पत्नी थी ।