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________________ सोहे श्री कबदेश, सदा परिघल लक्ष्मी निवेश। दक्षिण दिशियें समुद्र तीर, नदीया बहुलीने खलंके के नीर ॥७॥तेह देशमा कोमाय गाम, जापीयें अनिनव स्वर्गनं धाम ॥ देहरा उपास रा दीसे चंग, करे श्रावक नित्य बहुरंग ॥८॥ न्याति मांहे शोहे सवाल, मानसमां जेमन पे मराल ॥ शाह रायमल कुल अधिक मंडाण ॥ उपनो करमसी शाह पचाण ॥९॥माणक पूंजो बे दीसे वमवीर, देशल पेयोठे साहस धीर ।। मालसापाचा ते दीसे गएखाण, खंतसाकरमसी कीधा परित्राण ॥१०॥एहवा श्रावक दीपता दद, पदमाहे जेम शुकलपद । मेली कुंकोतरी मोरत लीधो, तिलक संघपतिनो पंचागने कधिो ॥११॥संघ चाल्यो ने कारज सीधो, प्रथम मेलाण मुंदरे जइ दीधो ॥ अदनुत अनोपम मिलयो ने साथ. साद्यहा 'श्री शीतलनाथ ॥ ॥१२॥बेसी जिहाजे नवीनपुर श्राया, देहरा देखीने आनंद पाया ॥ देवनुवन ते रमणीकस्था न. जापीयें अनिनव नलिन विमान ॥ १३ ॥ रायसी वईमान कीधा प्रासाद. उंचा करेने ग
SR No.010305
Book TitleJain Shiloka Sangraha Pustika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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