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________________ जैन महाभारत उन्नति की ओर जा रहे हैं और हम पतन की ओर ।" बेटे पर-असीम प्यार के कारण - उसे व्याकुल देख कर घृतराष्ट्र से न रहा गया, उन्होने बड़े प्रेम से दुर्योधन को समझाना चाहा बोले-बेटा! तुम्हारी ही भलाई के लिए कहता हूं, पाण्डवो से बैर मत करो युधिष्ठिर किसी प्रकार तुम से बैर नही रखता, वह कभी किसी के प्रति भी शत्रुता नही रखता, वह धर्मराज है अपने ही भाई से भला क्यो बैर रक्खेगा। उसकी शक्ति हमारी ही शक्ति तो है। उसने जो ऐश्वर्य प्राप्त किया है उस पर हमारा भी अधिकार है। जो उसके साथी हैं, वही हमारे भी हैं। उसे जो भी यश प्राप्त हुआ उस से हमारे कुल की भी तो कीति मे वृद्धि हुई। उसका कुल जितना उच्च है, उतना तुम्हारा भी है। वह रण कौशल मे जितना प्रवीण है. उतने ही तुम भी हो। तब फिर अपने ही भाई की उन्नति को देखकर तुम्हारे मन मे द्वेषानल क्यों भड़कता है ? बेटा ! तुम विश्वास रक्खो वह कभी तुम्हारी वद्धि के प्रति ईर्ष्या नहीं करेगा। उस से बैर रखना तुम्हे शोभा नहीं देता।" . धृतराष्ट्र को सीख दुर्योधन को पसन्द न आई, वह झुझला) कर बोला-"पिता जी ! आप वृद्ध हो गए है, पर अभी तक आप को लोगो को समझाना नहीं आया। आप तो बस युधिष्ठिर की प्रशंसाओं के तूमर बाधते रहते है। आप को क्या पता कि पाण्डव शनैः शनैः शक्ति प्राप्त कर के हम से राज्य छीनने का बडा यत्न कर रहे है । आप की सीख पर चला तो मैं कही का नही रहूगा ।" कहते कहते दुर्योधन का गला रुध गया, पिता का हृदय पसीज गया, पर वह थे, नीति शास्त्र के पारगत, वोले- "वेटा मैं तुम्हे दुखी नही देखना चाहता, तुम्हारे प्रति मेरे हृदय में कितना प्रेम है, यह तुम ने कभी समझने का प्रयत्न ही नही किया । मैं जो कहता हूं तुम्हारे हित के लिए ही कहता हू। पाण्डवो को किसी भी प्रकार प्राज परास्त करना सम्भव नही है। इस लिए तुम शक्ति सचय करो, इसी मे तुम्हारी भलाई है। शत्रु को कभी प्रेम से और कभी शक्ति से जीता जाता है।"
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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