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________________ ५४४ जैन महाभारत I यह शरीर । तुम तो शत्रु के लिए ? उसी समय श्री कृष्ण ने उसे समझाते हुए कहा - धनजय | तुम्हें क्या हो गया है ? अपने को सम्भालो । साक्षात काल हो । तुम्हारी ग्राखो मे ग्रांसू छी. छी: तुम्हे.. यह शोभा नही देता । मुझे तो ग्राशा थी कि इस दुखद समाचार को सुनकर तुम्हारे नेत्रो से क्रोध की चिंगारियां निकल पड़ेंगी और तुम वीर अभिमन्यु के हत्यारों से बदला लेने के लिए बेचैन हो जायोगे । परन्तु नुम तो नारियों की भाँति विलाप करने लगे। वह वीर वीरगति को प्राप्त हुआ है, उस पर अश्रु बहाना उसका अपमान करना है । धनंजय ! मनुष्य सभी कुछ टाल सकता है, पर मृत्यु को टालना उसके वस. की बात नही । जिसने जन्म लिया है उसे मरना ही है । हाँ, फूल तो दो दिन बहारे गुलिस्ताँ दिखला गए । हसरत उन गुँचो पे है, जो बिन खिले मुरझा गए ।" परन्तु वह वीर तो कली होते हुए भी अपने प्रभूत पूर्व गुणो से अपने को अमर कर गया । अर्जुन ! श्रात्मा कभी नही मरता, वह चोला बदल सकता है, परन्तु उसका कभी नाश नहीं होता । श्रभिमन्यु के शरीर को शत्रुग्रो ने निर्जीव कर दिया तो क्या हुआ, उस की आत्मा जिस रूप मे भी जायेगी, उसी रूप मे वह अपना उज्ज्वल रूप दिखायेगी । तुम विश्वास रक्खो कि वह वीर मर कर भी अमर है । उसने तुम्हारे नाम को उज्ज्वल ही किया है । तुम्हें गर्व होना चाहिए कि तुम्हारी अनुपस्थिति में उस ने वही काम किया जो तुम्हे करना चाहिए था ।" इसी प्रकार कितनी ही प्रकार से श्री कृष्ण अर्जुन को धैर्य वन्धाने लगे । वे अभिमन्यु के मामा थे, उस की मृत्यु से उन्हें भी धक्का लगा, पर उन के लिए शोक श्रौर हर्ष समान ही थे । उन्होने अनेक धार्मिक गाथाए सुना कर और जिन प्रभु की वाणी बताकर इस नश्वर संसार की वास्तविकता दर्शाते हुए अर्जुन को धैर्य वन्धाया जब श्री कृष्ण के उपदेश से अर्जुन को कुछ सन्तोष हुआ तो उस ने युधिष्ठिर से कहा - "महाराज ! मुझे यह तो बताईये कि वीर श्रभिमन्यु किस प्रकार मारा गया और कोन उसकी हत्या के लिए
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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