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________________ अर्जुन की प्रतिज्ञा ५४३ + -. . . . . . . रहा। मेरे लिए आज सारा ससार अधकारपूर्ण हो गया। अब मैं सुभद्रा को क्या जवाब दूंगा। और राजकुमारी उत्तरा जिसके हाथो को मेहन्दों भी अभी तक न मिटी, उसको क्या कहकर सान्त्वना दूगा। हा! जिसका पालन पोषण मैंने इतने प्यार से किया, जिसके कौशल, साहस और वीरता पर मुझे सदा ही गर्व रहा, मेरे रहते वह होनहार मुझे बिलखता छोड़ कर मुझ से मुह मोड कर चला गया।' हा मेरा गाण्डीव, मेरा भुजवल उस सुकुमार मेरे हृदयं पाश के किसी काम न आ सका। प्रोह ! जब मैंने द्रोणाचार्य द्वारा चक्र व्यूह रचना की बात सुनी थी, मेरा माथा तो तभी ठनका था। पर खेद कि मैंने संशप्तकों का सामना छोडकर प्रात्म सम्मान को ठेस देना गवारा न किया। मैं क्या जानता था कि मेरे चार महाबली भ्रातागो और अनेक महारथियो के रहते हुए शत्रु' उस वीर बालक को निगल जायेंगे ? मैं होता तो एक बार उसकी रक्षा के लिए साक्षात यमराज से भी टंकरा जाता और प्राण रहते मैं उसे ससार से मह न मोडने देता। हाय ! सुभद्रां सोचती होगी कि उसका लाल शीघ्र ही विजय सन्देश लेकर प्रायेगा, उत्तरा उसके स्वागत के लिए प्रारती का थाल सजाए बैठी हागी। द्रौपदी उससे उसके शत्रुयो के संहार का शुभ सम्वाद सुनने के लिए बेताब बैठी होगी। लेकिन वह वीरवर चला गया और मैं असहायों की भांति रोने के लिए रह गया." . अर्जुन की हिचकियाँ बध गईं। जो वीर सदा सिंह की भांति गर्जना करता रहता था, जो सदा साहस और वीरता की बातें करते रहने के लिए प्रसिद्ध था, जिसके नेत्रो से सदा हर्प, उत्साह, यौवन, साहस, आलोक, तेज और चिनगारिया निकलती थी. वह अश्रुपात कर रहा था। देखने वालों से भी न रहा गया और वे अपने करुण कुन्दन,को ता बड़ी कठिनाई से रोक पाये पर अपनी प्राखो से बहतो अविरल अश्रुधारा को किसी प्रकार भी न रोक पाये। , अर्जुन ने फिर अपने को धिक्कारते हुए कहा-"टूट जानो ऐ प्रतुत्य बलवाहिनी भुजाओं टूट जायो, फट जा ऐ वज के समान विशाल छाती फट जा, जब मैं अपने लाइले की रक्षा ही न कर सका तो फिर मुझे तुम्हारी, क्या जम्दरत। नही, नही मुझे नहीं चाहिए
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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