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________________ अभिमन्यु का बध ५३१ कता जाला वह परम पर लुढ़क वालक लक्ष्मण ने हार न मानी तो आवेश मे आकर अभिमन्यु ने उस पर एक भाला चलाया। केचुली से निकले सॉप की भाति चमकता हुप्रा वह भाला वीर लक्ष्मण के बड़े जोर से लगा । घुघराले वालो वाला वह परम सुन्दर बालक भाले की चोट न सह सका वेचारा घायल हो कर भूमि पर लुढ़क गया और देखते ही देखते कुडल धारी, सुन्दर मासिका व सुन्दर भौहो वाले उस राजकुमार लक्ष्मण के प्राण पखेरू उड गए। . , सैनिकों में शोर हया-"राजकुमार लक्ष्मण मारा गया। लक्ष्मण काम पाया ।" इस शोर को सुन कर विस्मित नेत्रा से दुर्योधन ने भूमि पर तडप तड़प कर प्राण देते अपने प्रिय पुत्र को देखा। वह प्रापे से वाहर हो गया। उस के नेत्रो मे खून उतर पाया, उसका मुख मण्डल प्रातः काल के उदय होते सूर्य की भाँति लाल हो उठा अग अग गरम हो गया और चिल्ला कर कहा- "इस दुष्ट अभिमन्यु का इसी क्षण वध करो मार डालो इस सपोलिये को सब मिलकर मेरे पुत्र के हत्यारे को एक क्षण मत जीवित रहने दो।" अर्त स्वर मे हा हा कार कर रहे कौरव सैनिक एक दम अभिमन्यु पर टूट पडे । . दुर्योधन ने द्रोणाचार्य की ओर देखकर कहा-"अब तो आप को सन्तोष पाया प्राचार्य ! मेरे बेटे को मरवा दिया ना।" । दुर्योधन की बात से द्रोणाचार्य के तन, वदन मे प्राग सी लग गई पर पुत्र शोक का प्राघात पहूचने की अवस्था मे दुर्योधन को जानकर उन्होने शात भाव से कहा-' लक्ष्मण जैसे वीर के वध हाने से किसे दु.ख न हुआ होगा। पर किया ही क्या जा सकता है। मैं तो अपने प्राण देकर भी उसे बचा सकता तो प्रसन्नता होती।" 'आप तो अभी अभी ऐसे खड़े हुए हैं मानो कुछ हुआ ही नहीं। मैं अभिमन्यु को जीविते नही देखना चाहता प्राचार्य ! अभी ही सव महारथियो को लेकर उस दुप्ट को मार डालना होगा।''दुर्योधन ने दात पीसते हुए चिल्लाकर कहा । "एक वीर बालक के मुकाबले पर हम सब का जाना तो युद्ध धर्म के विपरीत होगा।" द्रोणाचार्य बोले । "युद्ध-धर्म, युद्ध-धर्म-जल कर दुर्योधन ने कहा- क्या है आप का युद्ध धर्म । मेरा बेटा मारा गया और आप ने युद्ध धर्म की रट -
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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