SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 533
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभिमन्यु का वध ५२७ रथो पर चढकर एक साथ ही उस पर हल्ला बोल दिया। इसी बीच प्रश्नख नासक एक राजा बड़े वेग से अभिमन्यु के सामने पहूचा और जाकर भीषण प्रहार करने लगा। अपने बाणो से अभिमन्यु ने उसके वेग को रोक दिया और दो ही बाणो की मार से उसका शरीर पाहत होकर रथ से नीचे लुढक गया। क्रुद्ध होकर कर्ण ने तव वाण वर्षा प्रारम्भ की और मुकावले पर जा डटा । अभिमन्यु ने कर्ण को देखा तो तनिक सा मुस्करा कर बोला- "पिता से पराजित होने की कामना छोडकर पुत्र के हाथो अपनी मिट्टी खराब कराने आये हो तो लो।" बस वाण वर्षा प्रारम्भ कर दी, उसके अभेद्य कवच को तोड़ डाला भौर काफी परेशान किया। कर्ण की बुरी दशा देख दूसरे वीर प्रा डटे, पर सभी को अभिमन्यु ने अधिक देर तक न टिकने दिया। कितने ही वीरो को अपने प्राणो से हाथ धोना पड़ा। मद्रराज शल्य भी बुरी तरह घायल हुए, और अपने रथ पर ही अचेत पड़ गए। यह देखकर मद्रराज का छोटा भाई क्रोध के मारे आपे से बाहर हो गया और गरज कर बोला- "अभिमन्यु अब सम्भल । देख मैं तेरा काल बनकर आता ह " इतना कहकर वह अभिमन्यु की ओर झपटा, परन्तु अभिमन्यु ने उसके रथ को तोड़ डाला और अन्त मे यह कहकर कि-"जा तू भी, मत्यु को प्राप्त हो।" एक बाण मारा जा उसके सिर को दो भागो मे विभाजित करते हए दूर निकल गया। - - - अपने मामा श्री कृष्ण और पिता वीर अर्जुन से सीखी अस्त्र विद्या को काम मे लाकर कौरव दल के लिए सर्वनाश का दृश्य अस्तुत करने वाले अभिमन्यु की वीरता तथा रण कौशल को देखकर प्राणाचाय मन ही मन बहत प्रसन्न हए। वे गदगद हो उठे। और कृपाचार्य को सम्बोधित करके कहने लगे - 'मुझे सन्देह हैं कि अर्जुन भी इस वीर के समान पराक्रम दिखा सकता है ." - द्रोण ने मुग्ध होकर यह शब्द कहे थे, जो दुर्योधन ने भी सुन लिए। अभिमन्यु की प्रशसा द्रोण के मुह से सुनकर दुर्योधन को वडा कोष पाया। कहने लगा-"प्राचार्य को अर्जुन से कितना स्नेह ६, यह उसके पुत्र की प्रशसा सुनकर ही कोई समझ सकता है। भिमन्यु ठहरा उनके परम शिष्य का पुत्र । फिर प्राचार्य उसका .
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy