SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 489
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युधिष्टिर को जीवित पडने की चेष्टा ४८३ सुनाकर बोले-“वीर सैनिको ! आज का युद्ध बाज और मैंना का युद्ध है । हमे अपने महाराज की रक्षा द्रोणाचार्य रूपी वाज से करनी है। आज हमे शत्रु को पराजित करने के लिए नही वरन अात्म रक्षा धर्मराज की रक्षा के निमित्त युद्ध करना है । हमे शत्रु के पडयन्त्र को विफल करना है। इस लिए अपने सर्वस्व की बाजी लगाकर भी महाराज को बचाना है। आप सब आज आक्रमणी न होकर धर्मराज के अग रक्षक हैं । विजय हमारी होगी।" ... समस्त सैनिको ने मिलकर धर्मराज की जय जयकार की । महारथियो ने सेनापति के आदेश का स्वागत करने के लिए शख नाद किए। हाथी चिघाड उठे और अश्वो ने हिनहिनाकर अपना उत्साह प्रदर्शित किया। दूसरी ओर. सेनापति द्रोणाचार्य के शख नाद को सुनकर कर्ण ने अपना शख बजायो और अन्य कौरव वीरो ने उसके शखं नाद के उत्तर मे अपने अपने शख बजाये ।, समस्त कौरव वीरो ने एक बार "महाराज दुर्योधन की जय' के नादो से, आकाश गुजा दिया । सेनापति के आदेश पर-रण के बाजे वज उठे और कौरव सेना व्यूह के रूप में प्रागे वढी । द्रोणाचार्य आज अपने वचन को पूर्ति के लिए मन ही मन योजना बना रहे थे । ज्यो ही दोनो सेनाओ मैं मुकाबला आरम्भ हुग्रा, विकट गाडियो ने आग उगलनी प्रारम्भ कर दी । और पदाति से पदाति, रथी से रथी, अश्वारोही से अश्वारोही तथा गजारोही से गजारोही जूझने लगे . तलवारो की खनाखन, धनुपो का टकार, हाथियो की भीषण चिंघाड, नारकाट, गदारो के परस्पर टकराव और रथो के दौड़ने से ऐसा भीषण ध्वनि हो रही थी कि पान फटे जाते थे । प्रत्येक अपनी अपनी रक्षा और अपने अपने मुकावले के शत्रु को परास्त करने के लिए प्रयत्नशील था, फिर भी पाण्डवा की सेना को महाराज यधि प्टिर का विशेष रूप से ध्यान ' जस पुप्प काँटो से रक्षित होता है, उसी प्रकार धर्मराज विराट मेना से रक्षित थे। . - युद्ध का ग्यारहवां दिन था और याज कौरवो की ओर से मुख्य योद्धा थे द्रोणाचार्य । वे जिधर से निकलते संनिको के जमघट साई को भांति साफ करते चले जाते । जसे अग्नि सूखे वन को
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy