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________________ सातवा दिन ४२५ से पसीना बार वे भय के को सुनकर कुछ को गया. साकच क्रोध के सभी सैनिको कर काँपने लगे। लगे, शखनादो से सारा रण स्थल गज उठा।। इरावान मारा गया, यह देखकर भीमसेन के पुत्र घटोत्कच ने बडी भीषण गर्जना की। उसकी आवाज से सारा रण स्थल गज उठा इस भयानक गर्जना को सुनकर कुछ कौरव संनिको को काठ मार गया और वे भय के मारे डर कर कॉपने लगे। उनके अगों से पसीना छूटने लगा। सभी सैनिको की दशा अत्यन्त दयनीय हो गई। घटोत्कच क्रोध के मारे प्रलयकालीन यमराज की भॉति हो गया. 'उसकी प्राकृति वहत हो भयानक बन गई। उसके साथ विद्याधरी की एक विशाल सेना थी, जो भयानक अस्त्र शस्त्र लेकर चल रहे थे। स्वय घटोत्कच के हाथ में एक जलता हुआ त्रिशूल था। वह वार वार गर्जना करता चल रहा था-"वीरो। दुष्ट कौरवो का सहार कर डालो । देखो, तुम्हारे भय से शत्रु हवा के वेग के कारण कापते पीपल पतो की भाति थर-थर कम्पित हो रहे हैं ।" . घटोत्कच का ऐसा सिंह नाद सुन कर और अपने सैनिकों । मुखो पर हवाईयो उडता देख, दुर्योधन गजारोही सैनिको की परी भीड को लेकर घटोत्कच के मुकाबले के लिए चला । जब घटात्कच की दृष्टि एक भारी सेना सहित आते देख दुर्योधन पर पहा तो वह कुपित होकर गजारोही सेना की ओर बढा और जाते है। रामाचकारी आक्रमण कर दिया। दुर्योधन अपने प्राणो का मोह त्याग कर बडी फुर्ती से विद्याधरो से लडने लगा। उसने कुपित होकर कितने ही विद्याधरो को मार डाला यह देख घटोत्कच क्रोध के मारे जलन लगा और लपक कर दुर्योधन के पास पहुच गया । जति ही गरज कर बोला -"अरे नोच । जिन्हे तुम ने दोर्घ काल तक वनोमे मटकाया और अपनी नीचता से दारुण दुख दिए, उन्ही माता ताक ऋण से उऋण होने के लिए ग्राज तम्हे मोन के घाट उतार दृगा ।" इतना चेतावनी देकर त्रिशल छोड घटोत्कच ने अपने हाथ विशाल धनुप सम्भाला और भीपण वाण वर्षा कर के दुर्योधन वाणो के प्रावरण से ढक दिया। तब अपने प्राणो पर सकट देय पाचन पूरा शक्ति बटोर कर उस पर आक्रमण करने लगा। उस ग वाणी से घटोत्कच घायल हो गया और कोई चारा न देख एक महागक्ति अस्त्र को दुर्योधन पर फेकता, वह शक्ति पर्वत विदाण कर सकती। ज्यो ही शक्ति का प्रहार ग्रा, बंगाल Seण वाणात बटोरक दिया। तब सभी विदीन कर मनाता
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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