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________________ आशीर्वाद प्राप्ति नम्र भाव इसी बीच श्री कृष्ण दानवीर कर्ण के पास गए । से बोले- मैंने सुना है भीष्म जी मे द्वेष होने के कारण तुम युद्ध नही करोगे । यदि ऐसा है तो जब तक भीष्म जी नही मारे जाते तुम पाण्डवो की ओर आ जाओ । जब भीष्म जी न रहे गे और - तुम्हे दुर्योधन की ही सहायता करना उचित जान पड तो पाण्डवो का साथ छोड कर कौरवो की ओर आ जाना | कोई आपत्ति न होगी." उस दशा मे हमे ! ३६९ कर्ण इस प्रस्ताव को सुन कर चकित रह गए। बोलेकेशव । क्या पाण्डव इतनी छूट देने के लिए तैयार हो सकते है ? प्रोर क्या कोई व्यक्ति दो और भी लड सकता है ?" - 1 'हा, अवश्य दुर्योधन और यधिष्ठिर मे वडा अन्तर है । मुधिष्ठिर ग्राप को, थोडे समय के लिए ही सही मित्र बनाने मे ड े प्रसन्न होगे । रही दो ग्रोर से लडने की बात सो इस के लिए तुम्हें कौन रोक सकता है ?" श्री कृष्ण ने उत्तर दिया 1 उत्तर सुन कर श्री कृष्ण निरुत्तर होगए । श्री कृष्ण का उत्तर सुन कर कर्ण ने अपने दृढ निश्चय को दोहराते हुए कहा 'मैं युधिस्टिर की इस नीति का ग्रादर करता परन्तु मैं दुर्योधन का ग्रप्रिय किसी दशा मे नही कर सकता । 'मुझे प्राण पण से दुर्योधय का हितैषी समझे।" प्रीप T L महाराज युधिष्ठिर के वापिस आते ही पाण्डवो की सेना में रंग के बाजे बज उठे 1 महाराज युधिष्ठिर ने सेनाओ के बीच मे खडे होकर उच्च स्वर मे कहा - "शत्रुग्रो की सेना मे सम्मिलित जो वीर हमारा साथ देना चाहे, J ग्रपनी सहायता के लिए में उसका इस समय भी हार्दिक स्वागत करने को तैयार हूं । जो वोर शत्रु की ओर ही रहना चाहे वह शत्रु सेना मे होते हुए भी हमारा मित्र ही है."
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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