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________________ जैन महाभारत मैदान मे आ गया तो तुम्हे युद्ध से भला कैसे रोक सकता है । जाओ प्रसन्नता पूर्वक युद्ध करो । हा, तुम ने जो इस समय इस दशा मे मेरे सामने आकर अपनी महानता दर्शाई है उस से मैं बहुत प्रसन्न हं । चाहे जैसे भी हो मैं हूं दुर्योधन के साथ ईमानदारी से उसकी अोर से लङगा। पर तुम मेरे भानजे हो, और हो ऐसे कि मुझे तुम्हारा मामा कहलाते अपने पर गर्व होगा, अत तुम्हे वचन देता हूं कि तुम जो चाहो मांग सकते हो, हा मुझे अपनी सहायता के लिए मत मागना। वोलो, तुम्हे क्या चाहिए।" __"मामा जी ! मै सैन्य सग्रह के समय भी आप से एक बार प्रार्थना कर चुका हू. बस वहीं प्रार्थना, है, वही मेरा वर है। कर्ण से युद्ध होते समय आप उसके तेज का नाश करते रहे। आप अपने शुभ कर्मों के फलस्वरूप ऐसा कर सकते हैं। "युधिष्ठिर ने अपना मनवाछित वर मागते हुए कही। शल्य बोले-"अपने वचन के अनुसार मैं तुम्हारो यह मनोकामना पूर्ण करूगा । जाओ निश्चिन्त रहो।" इस प्रकार अपने गुरुग्रो तथा आदरणीय वृद्धों तथा सम्माननीय बुजुर्गो से अाज्ञा तथा आशीर्वाद प्राप्त करके महाराज युधिष्ठिर अपने भाईयो सहित उस विशाल वाहिनी के बाहर आ गए । इस प्रकार उन्हो ने युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व ही अपने शिष्टाचार द्वारा कौरवो की सेना के वृद्ध अनुभवी तथा अजेय सेनानियो को सहज मे ही जीत लिया। मन जीत लिया तो तन जीतने में क्या रक्खा है। वह भी जीत ही लिया जायेगा। इस दश्य को देख कर कौरवो को सेना के उन सैनिको की कल्पनाए धूलि मे मिल गई जो युधिष्ठिर के इस प्रकार शत्रु सेना नायको के पास जाने मे उनकी पराजय समझ रहे थे , जिस ने उन की वार्ता सुनी, वही युधिष्ठिर का प्रशसक बन गया। दोनो ओर असख्य सैनिक जीवन की आशा छोडे प्रथम विश्व युद्ध के लिए सजे हुए खडे थे। रण की भेरी बज चुकी थी पर यधिष्ठर अपनी बुद्धि तथा धर्म नीति द्वारा महानतम शिष्टाचार के सहारे युद्ध मे अपनी दिजय का प्रथम परिच्छेद पूर्ण कर रहे थे।
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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