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________________ जरा सिन्ध वध अपनी बेटी के पति के खून का बदला लेते । पर आप को क्या पड़ी है? जा के पैर फटी न विवाई वह क्या जाने पीर पराई जरासिन्ध वेटी की चुनौती भरी बात से व्याकुल हो गया। उसने कहा--"जीवयशा! तुम विश्वास रक्खो कि मैं एक न एक दिन उसका सिर तुम्हारे कदमो मे लाकर पटक दूगा। पर मेरी शक्ति को मेरे बाहु वल को चुनौती न दो।" "पिता जी, जो गरजते है वरसते नही " , जीवयशा की बात जरासिन्ध के तीर की भाति चुभी। वह तडप कर बोला--"तो फिर तुम्हें मेरा बाहुबल ही देखना है तो लो मैं अभी ही उस दुष्ट का सहार करने जाता है। जब तक कृष्ण का वध नही करू गा चैन न लू गा।। कही अवसर के बहाने रास्ते से बेचैनी से मत लोट पडना । निर्लज्जता पूर्वक जीवयशा बोली। जरासिघ ने तुरन्त अपने मत्री को बुलाया और गरज कर बोला मत्री जी! हम आज तक प्रतीक्षा करते रहे कि तुम कव कृष्ण वध के लिए उचित अवसर बताते हो, पर तुम तो जैसे सो गए और मुझे जीवयशा के सामने अपमानित एव लज्जित होने का तुम ने अवसर दिया। अव हम अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकते । जानो अभी ही सेनाए सजवादो। हम इसी समय द्वारिका पर चढ़ाई करने के लिए कूच करना चाहते है। मंत्री ने हाथ जोड कर निवेदन किया-"महाराज ! आपकी - प्राज्ञा शिरोधार्य है, पर इतनी जल्दी में कोई निर्णय कर लेना ठीक - नहीं है ।" जरासिन्ध प्रोधित होकर गरजा-"मंत्री जी! आपने नुना ३ नहीं, हम ने क्या प्रादेग दिया। हम इस समय कुछ नहीं सुनना • चाहते । चाहते हैं केवल पाना पालन। क्या ठीक है क्या नहीं, यह , मन हमारे सोचने की बातें हैं।" मत्री यांपते हुए यहां से चला गया, उसने तुरन्त सेनाएं - १ - -
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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