SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ जैन महाभारत और लोग कहते भी यही है कि इन्द्र देवता की आज्ञा से समस्त देवो ने मिलकर उसे बसाया था।" श्री कृष्ण का नाम सुनते ही वह चौक पड़ी पूछा-"श्री कृष्ण कौन है ?" व्यापारी हस पडा बोला- "प्रांप तो ऐसी भोली बन रही हैं, जैसे कुछ जानती ही नहीं.। भला श्रीकृष्ण को कौन नहीं जानता उन्हो ने ही कस का वध किया था।" व्यापारी के शब्दों से जीवयशा के हृदय मे सोये प्रतिशोध के भाव दवी आग की भाति धू धू करके धधक, उठे । तुरन्त जरासिन्ध के पास गई और नेत्रों मे आँसू भर कर बोली-="पिता जी। यह मैं क्या सुन रही हू ?" 'क्या सुना ?" क्या मेरे पति का हत्यारा अभी तक जीवित है ?" , "वेटी, वह भाग कर समुद्र तट पर जा बसा है । "क्या यही है आप की प्रतिज्ञा ? क्या मैं इसी प्रकार एक अोर विधवा जीवन और दूसरी ओर उस विषैले, नाग को फूलते फलते सुनते रहने का हार्दिक क्लेश सहन करती रहूंगी?" जीवयशा ने कहा। "वेटी! अनुकुल समय आने पर ही सव काम हुआ करते हैं। मैं उस अवसर की प्रतीक्षा में हूं जब वह मूर्ख स्वय मेरे चगुल में आ फसेगा ।" जरासिध ने अपनी पुत्री को सात्वना देते हुए कहा । . . परन्तु जीवयशा ऐसे नही. मानने वाली थी। उस ने क्रोध मे आकर कहा-'वस वस पिता जी रहने दीजिए, अपकी: डोंगें भी देख ली। आप के लिए कभी अवसर नही आयेगा । आप इसी प्रकार मुझे झूठी तसल्ली देते रहेगे। आप साफ साफ क्यो .नही कहते कि आप में इतनी शक्ति ही नही कि श्री कृष्ण का सिर कुचल सकेगे। आप स्वयं उससे डरते हैं । आपके हृदय मे मेरे प्रति तंनिक सा भी प्रेम होता तो आप अपना सब कुछ दाव पर लगा कर
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy