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________________ २७४ जैन महाभारत दूसरे पाप को जन्म देता है जो धर्म के प्रति कूल कार्य करते है वे विपदामो मे फसते है। इस लिए दुर्योधन को अन्यायी बताने से पहले हमे अपने पक्ष की त्रुटियो को भी अपने सामने रखना चाहिए और वही उपाय अपनाना चाहिए जिस से शाति स्थापित हो।" बलराम के कहने का सार यह था कि युधिष्ठिर ने जात वूझ कर अपनी इच्छा से जुआ खेल कर राज्य गवाया है। यह ठीक है कि शर्त के अनुसार उन्होने १२ वर्ष और एक वर्ष का अज्ञात वाम भी भोग कर अपना प्रण निभा दिया । इस से वे दासता से मुक्त होकर स्वतन्त्र रहने के अधिकारी हो गए और खोये हुए राज्य के वापिस भी माग सकते है. परन्तु इसका अर्थ यह नही कि दुर्योधन यदि उन्हे राज्य वापिस न दे तो वे वल पूर्वक उसे वापिस लेने क उन्हे अधिकार हो गया। क्योकि राज्य वापिस करने की दुर्योधन से याचना की गई थी और उसने एक शर्त रख दी थी, अव दुर्योधन का अपना कर्तव्य है कि वह राज्य वापिस करे। पर इस का या अर्थ नही हो जाता कि यदि वह स्वेच्छा से राज्य वापिस न करे त उसे ऐसा करने के लिए बाध्य किया जाय। हा, हाथ जोड के उस से अपना वचन पूर्ण करने की प्रार्थना की जा सकती है। जुन खेलना अधर्म है और जान बूझ कर अपनी सम्पत्ति को उस ' गवाना बहुत ही बडी नादानी है, लेकिन ऐसी नादानी करी वाले को यह अधिकार कदापि नही है कि वह अपनी भूल सुधार के लिए वल प्रयोग करे। इस के अतिरिक्त एक ही वश के लोगो का आपस मे लर मरना भी बलराम को अच्छा न लगा। वलराम की राय थ कि युद्ध अनर्थ की जड होता है। उस से कभी भलाई नहीं है सकती। परन्तु बलराम की बातो को सुन कर पाण्डवो का हितप मात्यकि आग बबूला हो गया। उस से न रहा गया। उठ क कहने लगा-"बलराम जी की बात मुझे तनिक भी तर्क सगत प्रतार नही होती। वाक पटता से उन्होने अपने विचार को न्यायोचिर भले ही सिद्ध करने का प्रयत्न किया हो, पर न्याय को अन्याय सिद
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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