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________________ २७३ परामर्श । केवल इसी बात से उसे अपराधी नहीं ठहराया जा सकता। बुधिष्ठिर स्वय जानते हैं कि स्वय इनके भाइयों ने ही उन्हे जुना खेलने से रोका था और इन्हे पहले से ही मालूम था कि शकुनि एक मजा हुया खिलाडी है और वे उनके सामने खेल मे ठहर नही सकते। शनि की निपूणता और अपने नौसिखये पन को ध्यान में रखते हए और अपने भ्राताओं के मना करने पर भी युधिष्ठिर ने जूना खेला और अपना राज्य हार गए। यह तो पाखों देखे अपने पैरो पर स्वय हो कुल्हाडी चलाना था। इस लिए दुर्योधन के पास युधिष्ठिर का राज्य चला जाना, दुर्योधन का अन्याय पूर्ण कार्य नहीं कहा जा सकता। अब तो उस खोये हुए राज्य को प्राप्त करने के लिए बहुत नम्रता पूर्वक ही कहा जा सकता है। एक ही रास्ता है राज्य वापिस लेने का, कि बहुत ही कुक कर प्रार्थना की जाये। इस लिए दूत बन कर जाने वाला व्यक्ति मदु भाषी हो, युद्ध प्रिय न हो। उस का उद्देश्य किसी न किसी प्रकार समझौता करना ही हो। यह बात आप को स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि पाण्डवो ने जो दु सह, दारुण दुख भोगे है, वे महाराज युधिष्ठिर के धर्म के प्रति कुल कार्य के कारण ही भोगने पडे। इस लिए हे राजा गण | दुर्योधन की मीठी वातो से ही समझाने का प्रयत्न कीजिए। शाति पूर्ण ढग से जो सम्पत्ति मिल जाये वही सुख प्रद होगी। युद्ध चाहे जिस उद्देश्य से किया जाये, उस मे अन्याय तथा हिंसा होती ही है और इस की हिंसा से जहा तक बचा जा सके उतना ही अच्छा है। यद्यपि गृहस्थाश्रम मे रह कर विरोधी हिंसा से बचना असम्भव है, राष्ट्र तथा धर्म के लिए ऐसी हिंमा करनी पड़ती है, फिर भी जान बूझ कर युद्ध करना और हिंसा तथा निरपराधियो का रक्त बहाना, अधर्म हैं। युद्ध के द्वारा न्याय की स्थापना होना असम्भव है। वैर से वैर निकालने से वैर बढता है। तीर्थरो का उपदेश है कि हिंसा दूसरी हिसाओ की जननी होती है। हिसा किसी भी समस्या का पूर्ण समाधान नही कर सकती। पाण्डवो ने स्वय अपनी आत्मा के साथ अन्याय किया है और दुर्योधन यदि शांति वार्ता के द्वारा समस्या नही सुलझाता तो वह स्वय अपनी आत्मा के के साथ अन्याय करेगा। केवली भगवान ने कहा है कि एक पाप भारण ही भोगने माने का प्रयत्न होगी। युद्ध ना ही है और न
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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