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________________ जैन महाभारत दृढनिश्चय करके अपने पुत्र नकुल और सहदेव को कुन्ती को समर्पण किया । और स्वय पाडु नरेश के साथ ही प्रायिका दीक्षा के लिये अग्रसर हुई । ११ सारा नगर उनके पीछे चला । पाण्डु नृप की जय जय कार से सारा नगर गूंज उठा । नगर से बाहर जाकर एक बार सभी कीर देखकर पाडु वोले “ - आप लोग अव मुझे क्षमा करें और वापिस जाकर धर्म ध्यान मे लगे, वैभव को छोड़ कर इस प्रकार पाडु चले गए। गंगा के तट पर जाकर उन्होने निर्ग्रन्थ दीक्षा ली और तप लीन हो गए । मुनि पाण्डु सभी जीवो पर समता भाव रखते थे, सब जीवो से उनका मैत्री भाव था, गुणी पुरुपो को देखकर ग्रानन्दित होते थे । उनका मन दर्पण वत स्वच्छ था । ग्रन्त मे उन्होने ग्राहार का त्याग कर, गुरू को साक्षी कर वीर शय्या स्वीकार की सम्यक ज्ञान दर्शन चारित्र तपाराधना रूपी पोत पर प्रारूढ होकर भव सागर को तोर्ण करने की इच्छा वाले उस महा यशस्वी पाण्डु मुनि ने प्राणी मात्र से समभाव एव मंत्री भाव स्थापित किया । तीव्र तपश्चरण से शरीर उनका जैसे कृश होता जा रहा था । अत त्यों-त्यो विलक्षण आत्म तेज उनके ललाट प्रतिभासित हो रहा था । अन्ततः वह समय आया जबकि सिद्ध परमेष्ठी भगवन्तो का हृदय कमल मे स्मरण करते हुए इस विनश्वर शरीर को त्याग कर सौधर्मकल्प मे दिव्य देवद्यूति सम्पन्न महाहिर्दक देव के रूप जन्म लिया । उधर मात्री प्रायिका ने भी हृदय को कपाने वाली दुर्धर तप अग्नि द्वारा जन्म जन्मान्तरों की पापराशि को भस्म करते हुए सलेखना मरण करके इसी सौधर्म देव लोक मे दिव्य द्युति वाले श्रमर शरीर को प्राप्त किया ।” भीष्मपितामह द्वारा पाडवों का राज्यभिषेक - पाडु नरेश की दीक्षा के पश्चात, हस्तिनापुर के राज्य सचालन कक्ष में कौरव वश के वयोवृद्ध, प्रतिष्ठित अधिकारियो की मनणा प्रारम्भ हुई कि नव भविष्य में राज्य सचालन का भार किस को सांपना चाहिये बहुत समय के वाद विवाद के पश्चात् भी अधिकारी सब का निश्चत मत यही स्पष्ट हुआ कि यदि प्रजा की प्रसन्नता समृद्धि मुख नैतिकता राज्यवृद्धि की कामना है तो युधिष्ठिर को हो
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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