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________________ ম দ जैन महाभारत इस लिए दुखी होने की क्या बात है ? विचारो, कि भरत चक्रवर्ति जो कि छ खण्ड का अधिपति था, जिस ने भूमण्डल को जीत कर अपने वश मे किया, वह भी काल से न बचा तो हमारी तुम्हारी तो बात ही क्या है ? यह काल बली अजेय है । वात यह है कि इस भव सागर में चक्कर लगाता हुआ कोई भी व्यक्ति सनातन शाश्वत नही रहा, इस लिए किस के लिए शोक किया जाय । इन भोगों से किस सत्पुरुष का मन उचाट नही हुआ। मैं चाहता हू कि जो थोडी सी आयु शेष रह गई है उसको अकारत न जाने दो क्या तुम यह चाहती हो कि मेरी आत्मा इसी ससार मे व्याकुल घूमती रहे। मैं कभी शाश्वत सुख न पा सकू मैं जानता हूं कि तुम मुझे सुखी देखना चाहती हो, ग्रत मुझे विदा दो ।" १० t इस प्रकार रानियों को समझाया और मुक्त हस्त से दान देना आरम्भ किया । दीन दुखियों में अपार धन राशी वितरित की थी । अपने पाचो पुत्रो को बुलाकर उन्हे उन के कर्तव्य समझाए और राज्य भार धृतराष्ट्र को देकर वोले- भाई ! मेरे इन पाचो पुत्रो को अपना ही पुत्र समझ कर इनका लालन पालन करना । >> धृतराष्ट्र जो चक्षु हीन थे, वोले “भ्राता विश्वास रखो कि आज से मैं १०० के स्थान पर अपने १०५ पुत्र समभूगा ।" जब विदा का समय आया तो पाण्डव रोने लगे । पाण्डु मुस्कराने लगे, कहा - "तुम तो वीर सन्तान हो तुम्हारी आखों में सू शोभा नही देते | आज तुम्हारा पिता धर्म पथ पर जा रहा है उसे प्रांसुओ से नही मुस्कानो से विदा दो ।" 1 पाडु नरेश की शिक्षाओं से सवने अपने मन को ज्यो त्यों शान्त किया परन्तु राजरानी माद्री के हृदय की विलक्षण स्थिति थी । पति के विना उसे समस्त ससार सूना-सूना सा प्रतीत हो रहा था । जिन महलो मे रानिया दिवान रंग रेलियो करते करते सूर्य कव चढा और कब अस्त हुए का भी उसे ध्यान न होता था वही महल उसे यम दष्ट्रा समान भयानक प्रतीत हो रहे थे। जिसके कारण उसने समाधि प्राप्त करने के लिए पति पदानुसरण करने का
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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