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________________ १५४ जैन- महाभारत कृत्या वहाँ से चल कर उस स्थान पर आई जहाँ पाण्डव मृत समान पडे थे । उस ने देखा कि पाण्डव मृत समान पड़े हैं, और एक भील उन्हे उलट पलट कर देख रहा है। पूछा - "इन पाण्डवों को क्या हुआ उसने भील से ?" 7 वह दुखित होकर बोला- ' दीखता नही यह मरे पडे हैं इन मे जीवन का एक भी चिन्हें नही है । हाय, हाय, किसी दैत्य ने इन्हे मार डाला।" "तुम्हें इन के मरने का इतना दुख क्यों है ? क्या तुम इन के दास हो ?". - कृत्या ने पूछा । आखो मे आसू भर कर भील बोला - " मै क्या सारा ससार इनकी सेवा करने को तैयार रहता था। मैं दास तो नहीं, पर 7 उनका भक्त श्रवश्य हू ;" "ऐसे क्या गुण थे इन मे ? ' - "यह दुखियो का दुख हरने वाले, न्याय वत, धैर्यवान ' सहन शील, दान वीर, धर्म पर अडिग रहने वाले योद्धा, समस्त संसार का भला चाहने वाले, शत्रु के साथ भी मित्रों जैसा व्यवहार करने वाले और असीम साहसी थे । इनके मरने से दुष्टो को खुल खेलने का अवसर मिल गया । दरिद्रो का अव कोई सहारा ही नही रहा । वह भील वोला । 39 J कृत्या ने श्राश्चर्य से कहा- “अच्छा इतने गुणवत थे पाण्डव । तो फिर कनकध्वज उन्हे क्यो मारना चाहता था ?" " उसे इन की हत्या करने के पुरस्कार स्वरूप दुरात्मा दुर्योधन अपने उस राज्य का एक भाग देने का वायदा कर चुका था, जो एक दिन पाण्डवो का ही था, छल, कपट और अन्याय द्वारा जिसे उस दुरात्मा ने अपने दुष्ट सहयोगियों के सहारे छीन लिया था। " - भील बोला । "भील तुम ने मुझे बता कर बहुत ही अच्छा किया। मैं कृत्याह । मुझे कनकध्वज ने सात दिन की घोर तपस्या से सिद्ध
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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