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________________ गधर्वो से मित्रता - युधिष्ठिर क्रुद्ध नही हुए बल्कि उन्हो ने जो भी सम्भव हो सका, जो उनके उस समय पास था, दान मे सब कुछ दे दिया। वनवास में भी उन्हो ने अपने स्वभाव का. परित्याग नही किया । उधर एक चक्री नगर का समाचार जब दुर्योधन को मिला, तो जैसे उसके स्वप्नो पर भयँकर वजापात हुआ हो। वह बहुत चिन्तित हो गया। उसके लिए लाख के महल से पाडवों का बच निकलना और इतने दिनो तक पता भी न लगना, एक अद्भत बात प्रतीत हो रही थी। वह जितना हो इस रहस्यमयी बात पर विचार करता था, उतना ही उसे अपने सहयोगियों और अपने भाग्य पर अविश्वास होता जाताथा । वह मन ही मन मे पुरोचन को गालिया देने लगा। और अपनी योजना की असफलता का उत्तरदायित्व उसी के सिर थोपने लगा। दु शासन और दुर्योधन, दोनों भाई अपने भाग्य पर अश्रुपात करने लगे। , उन्हो ने अपना दुखडा शकुनि को सुनाया-“मामा ! अब बताओ क्या करें? दुष्ट पुरोचन ने हमे कही का भी नही छोडा। लाक्षाभवन की घटना को लेकर ससार का प्रत्येक विचारशील व्यक्ति हमें घृणा की दृष्टि से देखेगा। इससे हमे लाभ होने की अपेक्षा पाडवो को ही लाभ हुआ है। इत्यादि अनेक प्रकार से पछताते हुए अपने सिर को पीटने लगे। पांडवो के प्रति दबी हुई ईर्षा की अग्नि उस के हृदय में और भी प्रवल हो उठी। और पुरातन शत्रुता फिर से जाग उठी । फन कुचले सर्प की तरह दुर्योधन भयंकर रूप से विषवमन एव चोट करने की सुविधा में घूमने लगा। + x + x + +'. x . __ एक बार अर्जुन गाण्डीव धनुप को हाथ में लेकर वन की मैर को निकला और सुर प्रेरणा से एक पहाड़ पर चला गया । अर्जुन एक शिला पर बैठ कर सुस्ताने लगा कि तभी एक 'विकराल
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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