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________________ * एकादस परिच्छेद * गंधर्वो से मित्रता । अनेक कष्ट हसते-हसते सहन करते हुए पाण्डव वन में । जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक ओर तो उन्हें हिंसक पशुओ से अपनी रक्षा और जीवनयापन की समस्या को हलझाने में सदव सजग और सतत्त प्रयत्नशील रहना पडता: दूसरी ओर उनकी ख्याता एक चक्री नगर के प्रकरण को ले कर दूर-दूर तक फैल चुकी थी। लाक्षाभवन के दाह के कारण पाण्डवों के दाह की जो भ्रान्ति चारा तरफ फैलाई थी, वह दूर हो गई थी, जिस के कारण अनेक ब्राह्मण, मित्र श्रद्धालु भक्त आदि उन के पास पहुच जाते। अतिथि सत्कार उन के लिए कई वार तो बडी ही विकट समस्या बन जाती। पर युधिष्ठिर कभी पीछे न हटते, स्वय भूखा रहना पसन्द करते, पर अतिथि का समुचित सत्कार करते। कहते हैं एक बार दुर्योधन ने कुछ लोगों को यह कहला दिया कि वन में युधिष्ठिर मुक्त हस्त से दान दे रहे है। भिक्षा मांग कर उदर पूर्ति करने वाले, दरिद्री और दान से जीवन यापन करने वाले ब्राह्मणो ' का एक बड़ा दल दान के लोभ मे पाण्डवो के आश्रम पर पहच गया और उस न अपन आने का कारण कह सुनाया।
SR No.010302
Book TitleShukl Jain Mahabharat 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year
Total Pages621
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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