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________________ 1 : ४ 4 7 जैन महाभारत ३८ बढ़ प्रमाण देखकर अत्यन्त विरक्त होकर मुनि के उपदेशामृत का पान कर नन्दी की आत्मा कृतकृत्य हो गई। उसने तत्काल मुनिराज से चतुर्थ महाव्रति दीक्षा ग्रहण करली । अब नन्दीषेण परम विरक्त होकर गुरुदेव के चरणों मे बैठकर ज्ञानार्जन के लिए तत्पर हो गया । पश्चात् वह पॉच समीति व तीन गुप्तियो का का पालन करता हुआ एकान्त तप मे लीन हो गया, क्योकि तप पूर्व संचित पापमल को दूर करता है और चारित्र्य नवीन कर्मों का निग्रह । अतः नवीन कर्म मल के आगमन के बद होने तथा प्राचीन मल के नष्ट होने पर आत्मा निर्मल हो जाती है और सुप्त शक्तियाँ जागृत हो जाती है, इन शक्तियों का ढॉपने वाला तो कर्म मल ही है । किन्तु सर्वज्ञो ने इस विषय मे एक चेतावनी दी है कि " साधक । इहलोक परलोक की लालसा के लिए तथा कीर्ति, वर्ण, शब्द व श्लोक की कामनार्थ तपका आचरण मत कर, तप तो आत्म-शुद्धि का हेतु है तू उसे वासना पूर्ति का साधन न मानना । यदि किसी सासारिक कामना के लिए तप का अनुकरण करेगा तो आत्मशुद्धि की अपेक्षा आत्मा मलीन ही होगा। क्योकि वासना पुनर्जन्म एव मलीनता की जड है । अत तू मात्र निर्जरा के लिए तपका अनुष्ठानकर अर्थात निष्काम हो तप का श्राचरण कर। तभी द्रव्य भावसे मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त कर सकेगा । वह तप वाह्याभ्यन्तर भेद से दो प्रकार का है । वाह्य तप के छः भेद है अनशन, उनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसलीनता । श्रभ्यन्तर तप के भी छः भेद है यथाप्रायश्चित विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग। । ww इधर ज्यू ज्यू समय बीतता गया नन्दीषेण मुनि का तप भी उत्तरोत्तर परिवृद्ध होने लगा । इस बड़े भारी तप के प्रभाव से उसकी सुप्त आत्म-शक्तिया स्वतः जागृत हो गई । लाभान्तराय के क्षयोपशम से जव जिस वस्तु की इच्छा होती है उसे वही प्राप्त हो जाती है । इस प्रकार की वस्तु स्थिति देख नन्दीपेण मुनि ने आन्तरिक तपों में वैय्यावृत्य को सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ जान उस का X अभिग्रह धारण कर लिया क्योंकि वैयावच्च की महिमा का वर्णन करते हुए स्वय भगवान ने अपने श्रीमुख से कहा है कि वैयावृत करने वाले जीव को मानव जीवन का सर्वश्रेष्ठ पद तीर्थंकरत्व प्राप्त होता है ।
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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