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________________ ३४ जैन महाभारत -rrrrrrrrrrrrawn mwwmmmmmmmm हे राजकुमारी! उन अरिहन्तो के नमस्कार के फलस्वरूप ही तुम्हे इस ऋद्धि की प्राप्ति हुई है । अत पूर्व संस्कार के वशीभूत हो तुमने 'अरिहन्त, का नमस्कार किया है । यह सुन कर राजकुमारी ने विचार किया कि क्या यह सत्य है । इस प्रकार सोचते ओर आत्माध्यवसायो के निर्मल हो जाने से राजकुमारी को वहीं जाति स्मरण ज्ञान हो गया ओर वह हाथ जोड कर लाध्वी से कहने लगी--आपका कथन सत्य है, आपने यहा आकर मेरे पर बडा उपकार किया ह अत. मै हृदय से आभारी हूँ। इस प्रकार वन्दन कर बहुमान के साथ दत्त श्रार्या को विदा किया। ___इस प्रकार सुमित्रा साध्वी ल जिनेन्द्र प्रतिपादित मार्ग को सुन कर स्वीकार, जिन प्रवचन में अत्यन्त कुशल हो गई । गुवावस्था को प्राप्त होने पर पिता ने उसका स्वयंवर करने का विचार किया तो राजकुमारी ने पिता में कहा कि हे पिता जी स्वयंवर की कोई आवश्यकता नही है । इल भव पर भव में सुखसारक इस गाथा का जो सम्यक् स्प में उत्तर देगा, उमी में विवाह करगी, अन्य किसी के साथ नहीं। कि नाम हो त कामगं वहनिम्नसणिय अलज्जणी । पन्छाय होट पच्छ (स) य रण य णासनहर मरीरंगम्मि ।। एमा कानमा कम है, जो बहुत समय तक टिकता है, जो अलगगीय जो पीछे भा हितकारी है और शरीर के नष्ट होने पर भी जो नाग को प्राप्त नहीं होना है। गह गाया गपृ देवा दशानंग में प्रसि । कग जिम मुन कर माग र अनेर, विहाना ने विविध वस्तुयों के सम्बन्ध साना किसाई भी मुगिना के अभिप्राय ना समझ नहीं सका । तब ' नं पार गनमा -
SR No.010301
Book TitleShukl Jain Mahabharat 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuklchand Maharaj
PublisherKashiram Smruti Granthmala Delhi
Publication Year1958
Total Pages617
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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